Tuesday, 29 November 2011

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लोक-सरोकार के महाकवि आचार्य भगवत दुबे
कविता वाचक्नवी
 आचार्य भगवत दुबे (1943) मनुष्यता के पक्ष में कलम सम्हालने वाले वरिष्ठ हिन्दी रचनाकारों में शामिल हैं। उन्होंने काव्य, कथा और आलोचना के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा के ज्वलंत प्रमाण दिए हैं । उन्हें साहित्य की समस्त विधाआंे के निष्णात शिल्पी (इन्द्रमणि उपाध्याय) कहना सर्वथा उचित है । भगवत दुबे की प्रकाशित कृतियों में स्मृतिगंधा, प्रणय ऋचाएं, अक्षर मंत्र, शब्दों के संवाद, हरीतिमा ये व्याकुल वनपाॅंखी, रक्षाकवच, वनवासी, संकल्परथी, बजे नगाड़े काल के, शंखनाद, जियो और जीने दो-जैसी काव्य कृतियों के अतिरिक्त गजल-संग्रह, चुभन, महाकाव्य-दीधीचि तथा कहानी-संग्रह-विषकन्या एवं दूल्हादेव सम्मिलित हैं । उनकी साहित्य सेवाओं के लिए उन्हें विविध सम्मान, अलंकरण और पुरस्कार भी प्राप्त हो चुके हैं ।
 आचार्य भगवत दुबे के लिए कविता मनोरंजन नहीं बल्भ्कि एक समाजोपयोगी सोदृदेश्य उत्पादन है । वे मानते हैं कि कविता के द्वारा जन, मन को आंदोलित किया जा सकता है और समाज को शिक्षित भी किया जा सकता है- भले ही इसमें किसी को कवित्व की हानि होती दिखाई दे । इनका मानवतावादी गीतसंग्रह ‘जियो और जीने दो‘ ऐसी ही सोदृदेश्य कृति है, जिसकी रचना मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को ध्यान में रखकर की गई है। प्रारंभ में संयुक्त राष्ट्रसंघ महासभा द्वारा 10 दिसंबर, 1948 को अंगीकृत मानव अधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा को प्रकाशित किया गयाहै, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह कृति एक प्रकार के प्रायोजित लेखन का परिणाम है । प्रायोजित लेखन प्रचारात्मक होता है और लोक-मानस में पैठना उसका लक्ष्य होता है । कहना न होगा कि ‘जियो और जीने दो‘ की रचनाएं इस लक्ष्य में सफल हैं । निबंध के विषयों को छंदोबद्ध रूप में प्रस्तुत करने में आचार्य जी अपना सानी रहीं रखते । इसके लिए वे नारों की तरह इस्तेमाल होने योग्य पंक्तियों की रचना करते हैं, मुंहावरांे और लोकोक्तियों काप्रयोग करते हैं तथा इतिवृत की शैली अपनाते हैं, जैसे-
 मानवाधिकारों की रक्षा होने तभी भलाई है, असामाजिक तत्वों से लड़ना हमें लड़ाई है
विश्व व्यवस्था छिन्न-भिन्न है मानवीय अधिकारों की, मानवता शिकार होती है शोषण, भ्रष्ट, भटैतों के
धन के आगे, आज सत्य की होती नहीं सुनाई है, असामाजिक तत्वों से लड़ना हमें लड़ाई है ।
गजल के शिल्प का भी कवि ने संुदर प्रयोग किया है-
 क्या लिखूं राष्ट्र की रपट बन्धु, नेतृत्व गया है भटक बन्ध
 कश्मीर, आन्ध्र, आसाम सहित, घायल है केरल कटक बन्धु
 चूहे चालाक, चुनावों में, दिग्गज को देने पटक बन्धु
 आचार्य, मौलवी विष उगलें, यह बात, रही है खटक बन्धु
ऐसी रचनाओं में उपदेशात्मकता का खतरा बराबर बना रहता है । ‘जियो और जीने दो‘ की कविताएं भी इसका अपवाद नहीं है । ‘शोषण हो निर्मूल‘ शीर्षक गीत में कवि ने उपदेशात्मक मुद्रा में कहा है कि केवल अधिकारों का ही नहीं कर्तव्यों का भी ख्याल रखना चाहिए, अधिकारियों का छल और भ्रष्टाचार का मार्ग छोड़ देना चाहिए, ऐसे खेल नहीं खेलने चाहिए जो खुद पर आपत्ति ला दें, ऐसी हठधर्मिता से बचना चाहिए जो विकास की गति को अवरूद्ध कर दें, श्रमिक, गरीब और दलिीत वर्ग को उनके मौलिक अधिकार दिलाने का दृढ़ संकल्प लेकर शंति के सुखद सबेरे को लाने का प्रयत्न करना चाहिए।
 ग्राम्य जीवन, प्रदूषण, पर्यावरण, जल, जंगल, जमीन, बांध एवं आदिवासियों के विस्थापन पर केन्द्रित कविता-संग्रह ये व्याकुल वनपाॅंखी में आचार्य भगवत दुबे की भारतीय लोक-संस्कृति के प्रति सच्ची चिंता अभिव्यक्त हुई है । इस कृति में कवि ने सहज संपे्रश्य बोलचाल की भाषा का बहुत सुंदर काव्यात्मक प्रयोग किया है । नर्मदा को गंगा की ही भांति माॅं कहा जाता है । उसकी गति में आलौकिक संगीत सुनाई देता है ।
 बज रहे नुपूर छमाछम, जें बांधे हो पाॅंव में
 मंद, कल-कल गूंजता स्वर, मार्ग के हर गांव में
 भर रहीं आह्लाद तुम, संगीतमय झंकार दे
परंतु कवि का यह सांगीतिक आह्लाद अधिक देर तक नहीं रह पाता । क्योंकि नर्मदा के कंकर भले ही शंकर हो गए हों, उसके तटवासी, वनवासी आदिवासी जन अशिक्षा और शोषण के शिकार ही बनते रहे हैं । कवि चिंति है कि जिस आयु में बच्चों को बस्ते दिए जाने चाहिए थे, उनके हाथों में हथौड़े और घन थमा दिए गए और स्वतंत्रता के बाद भी शासेषण बरकरार हैं । कविता के एक ही अंश में व्यंजना का चरमोत्कर्ष और अमिधा की सादगी भरने में आचार्य जी सिद्धहस्त हैं । सपनों के टूटने का एक चित्र दृष्टव्य है-
 इन्द्र धनुष बोए थे हमने, रंग उगे सब काले, दिखें प्रगति के प्रादर्शों पर, शोषण करने वाले
अपनी इसी व्यंजना और अमिधा की एक साथ तिरहवीं और सीधी चाल वाली काव्यभाषा के कारण ही ‘ये व्याकुल वनपाॅंखी‘ की रचनाएं सहज संप्रेषणीय बन पड़ी हैं । लोक में गहरे पैठने के लिए कवि ने लोकछंदों और लोकधुनों का भी सफल प्रयोग किया है । लोक-शैली के कारण कवि का संदेश या उपदेश भी पाठक को उबाता नहीं । भूकंप पर केन्द्रित एक फाग रचना की अंतिम पंक्तियां इस संदर्भ में विचारणीय है, जिसमें रचनाकार ने खड़ी बोली के पदों में क्षेत्रीय शब्दों और क्रियाओं को अन्तर्निविष्ट करके काव्यभाषा को अधिक जीवन्त बना दिया है ।
 फैली मृतक सड़ांध, प्रकृति से खेल न करियो,    वृक्षारोपण सहित बनों की रक्षा करियो
 घर बनाओ जो कर सकें, भूकम्पन अवरोध, वरना कैसे झेल हो धरती माॅं को क्रोध
 धरो धरणी ने रूप रणचण्डी को बाॅंधों की आवश्यकता किसी से छिपी नहीं है लेकिन ऊॅंचे बाॅंधों ने उर्वर खेत-कछवरों को डुबाकर कितने परिवारों को निराश्रय और विस्थापित किया है, इसे वही जान सकता है जिसने भगवत दुबे की तरह गाॅंव गाॅंव, जंगल जंगल भटकते व्याकुल वनपांखियों से तादात्म्यकर लिया हो । इस विषय को लेकर एक ओरतो उन्होंने लंबी-लंबी इतिवृत्तात्मक कविताएं लिखी हैं परन्तु दूसरी ओर पर्यावरण संरक्षण जैसे उपदेशात्मक विषय को गीतों की कलात्म्क अभिव्यक्ति  प्रदान की है, जैसे-
 1. सहमी सिसक रहीं झोपडि़यांॅ, बढ़ती शीतनिशा मॅंहगाई
  घटते दिन ज्यों आमदनी से,
2. पाखण्डों का बोझ लदा तो, कूबड़-सी झुक गई अलगनी
3. शेष बचे वृक्षों के जहां अभी अंश, वहीं बचा नीर कहीं, आशा के हंस
हरे भरे दृश्य, वहीं फूल लाल लाल, गदराए गोरे-से महुआ के गाल
 ‘गाॅंव का पीपल पढ़ना‘ भगवत दुबे की श्रेष्ठ गजलों में से एक है । ‘ये व्याकुल वनपाॅंखी‘ की यह रचना प्रकृति के आॅंचल में जीने वाले वन्य प्राणियों, वनस्पति और वन-सहचरों को एक साथ लेकर चलती है। रचना धुगेर-सी उमड़ती है और करूणा का यथार्थ व अनूठा मिश्रण इतनी सहजता से करती है कि व्यंजना के पूर्णस्वर को भी लांघ जाती है। व्यंग्य और करूणा का सामंजस्य निर्विवाद रूप से गहन आत्मानुभूति का प्रमाण देता है । नई भंगिमा के साथ प्रस्तुत रचना शीत के कोहरे-सी देर तक छेदती रहती है, छाई रहती है-
 माॅंग खाली व पुछा आॅंख का जल पढ़ना, काई हिरणी भी वही वक्त से घायल पढ़ना
 इनमें अपनी ही बहिन बेटियां सिसकती हैं, किसी तवायफ की बजती हुई पायल पढ़ना
 आप शोहरत के लिए दूर, बहुत दूर गए, ऊब जाओ तो कभी गाॅं का पीपल पढ़ना
अपने गजल-संग्रह ‘चुभन‘ के आत्मकथ्य में आचार्य  भगवत दुबे ने यह मुद्दा जोर देकर उठाया है कि ‘गजल आज अपने इश्क-मिजाजी रूमानी सरोकरों से अलग पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रही है, इश्क और हुस्न के यश स्तूप गढ़ना अब इसे रास नहीं आ रहे हैं ।‘ अपनी गजल को समसामयिक प्रतिद्धताओं की प्रतिनिधि बताने हुए उन्होंने यह भी कहा है कि ‘‘स्त्री और पुरूष के बीच के स्वाभाविक आकर्षण एवं आत्मीय संस्कारों को सुसंस्कारित शालीनता समर्पण आस्था और विश्वास के अटूट रेशमी रिश्तों से बांधने एवं मजबूत करने के लिए अत्यंत उदास मैत्री मूलक ममतालू मनावृत्तियों को आज की गजल ने कदापि उपेक्षित नहीं किया है, अपितु उसे दैहिक बाजारों को सजाते भड़काउ मनोविकारों का निषेध करते हुए अनुशासन के आसन पर प्रतिष्ठित कर सौदर्यशक्ति के सारस्वत दिव्यार्चन के आस्थामूलक आयाम दिएस हैं ।‘‘ इतना ही नहीं वे यह मानते हैं कि आज की गजल शोषण, भ्रष्टाार, अन्याय, अनाचार का डटकर मुकाबला करने के लिए कटिबद्ध हैं । वे यह भी लिखते हैं कि ‘‘यह गजल हुस्न के मादक पैमाने छलकाने की बजाए व्यंग्य की बारूद भी बिछाने और अस्मिता की आग सुलगाने के लिए उदास, निरास और हताश मानवता के अन्तस की ऊर्जा को जगाने का काम अधिक कर रही है ।‘‘ गजल के मूलभूत चरित्र के बदलाव के संबंध में की गई ये तमाम बातें 80 के दशक में डाॅ देवराज और ऋषभदेव शर्मा द्वारा प्रस्तुत की गई तेवरी काव्यान्दोलन की आधिकारिक घोषणा की याद दिलाती है । अब आप गजल कहे या तेवरी, यह तो तय है कि आचार्य दुबे की इन रचनाओं का तेवर तापक्रम और मुद्रा परम्परागत गजल से भिन्न है । साथ ही इन गजलों की यह भी एक उपलब्धि है कि कवि ने इनमें हिन्दी के भाषिक संस्कार को सुरक्षित रखा है, मिथकों और पौराणिक प्रतीकों के साथ-साथ सहज उर्दू का प्रयोग करके काव्यभाषा को सामाजिकता प्रदान की है । आचार्य भगवत दुबे की गजल के मौलिक तेवर को समझने के लिए उनकी यह रचना देखी जा सकती है-
 गाॅंव में यूॅं शहर शहर के उजाले गये, लोक लज्जा के मूंह, होते काले गये
 चीर, जिनने किए अस्मिता के हरण, उनके स्वागत में, साफे-दुशाले गये
 चाटुकारी की पुस्तक पुरस्कृत हुई, पृष्ठ कुर्बानियों के निकाले गये,
 तोंद भरने तिजोरी की, गोदाम की, भूखे बच्चों के छीने निवाले गये
 प्रश्न होते रहे, दफन फाइल में सब, सिर्फ नरों मे उत्तर उछाले गये
 मंदिरों-मस्जिदों मेंअमन के लिये, फिर दुआ करने को बरछी-भले गये ।
गीत, गजल और तेवरी के सिद्धहस्त रचनाकार आचार्य भगवत दुबे ने वर्षों अथक परिश्रम करके दधीचि (महाकाव्य की रचना की है, जिसे छायावादोत्तर हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि कहा जा सकता है । आधुनिक काल में कविता ने जब अपनी लीक बदली तो नए-नए ऐसे मोड़ आते गय कि यह समझा जाने लगा कि प्रबंधकाव्य की परिपुष्ट धारा अचानक कुठित हो गई है । असल में अनेक दशकों तक किसी महाकाव्य के हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा में अपनी पहचान न बना पाने का कारण यह नहीं है कि प्रबंधात्मकता का युग चला गया अथवा कविता को कथा ने अपदस्थ कर दिया बल्कि इसका कारण यह है कि ऐसे कथावृत्त का अभाव रहा जो अपनी प्रासंगिकता में काल का अतिक्रमण करने में सक्षम हो। जिन रचनाकारों को ऐसे कथावृत्तों का महाकाव्यात्मक ट्रीटमेंट किया, ऐसे कथाकार भी उपन्यास के रूप में महाकाव्य दे सकंे । ऐसी, रचना-स्थितियों के बीच आचार्य भगवत दुबे ने सर्गों और छंदों मेंबंधा हुआ महाकाव्य रचना, जिसमें दधीचि के कंकाल से बज्र बनाए जाने और वृत्रासुर का वध किए जाने की गाथा को काव्यरूप प्रदान किया गया है । आतंकवाद के नग्न नृत्य से प्रकम्पित पृथ्वी की रक्षा के लिए परमाणु बमों का निर्माण इस गाथा की आधुनिक प्रसांगिकता है । पूरा काव्य नौ सर्गों में नियोजित है, जिनके शीर्षक है-दधीचि, सूरक्षा, गुरू, वृत्रासुर, मंत्रणा, सुषमा, आश्रम, बलिदान और युद्ध । दधीचि, महाकाव्य की भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण और इतिवृत्तात्मक है जो कहीं-कहीं मैथिलीशरण गुप्त की सहज काव्यभाषा की याद दिलाती है । छन्दों के वैविध्य में भी कव ने कमालकर दिखाया है । आवश्यकतानुसार संस्कृतवृत्तों का प्रयोग वे अयोध्या सिंह उपाध्याय की तरह करते हैं। ओज-गुण की दृष्टि से ‘दधीचि‘महाकाव्य पढ़ते समय श्यामनारायण पाण्डेय की याद ताजा हो जाती है। युद्ध सर्ग में मध्यप्रदेश के लोक-काव्यों की शैली का प्रीााव अन्तर्धारा के रूप में विद्यमान । देवताओं पर दानवों के आक्रमण का एक चित्र इस प्रकार है-
देवों के दल पर टूट पड़े, उन्मत्त कु्रद्ध दानव काले, मनुजों को लगता था मानों पड़ गए काल के अब पाले
ललकार रहे दानव नायक मारो-मारो मर्दन कर दो, ये शत्रु न जिंदा बच पाए, अभिमान चूर इनका कर दो
मन गया युद्ध फिर घमासान, तलवार चमकती थी चमचम, भाले घुस जाते छाती में, आते निकाल लाती बल्लम
तेगा लहरा कर वार करेंख् सन-सन चलते विष बुझे से बाण, मुगदर के मुंह फटे गज के, खच घुस जाती थी कृपाण
ऐसे आतंकवादी वृत्रासुर पर जब परमाणु बम सरीखा दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र छोड़ा गया तो-
शत सूर्यों सम ज्वाला निकली, जब काल कराल कुलिश छूटा, लपटों से झुलसा, भूमण्डल, ज्यों ज्वालामुख पर्वत फूटा
थी धरा धधकती धू-धूकर,  जब लोहित-सी हरियाली थी, ज्यों अट्टहास कर टूट पड़ी रणचंडी खप्परवाली थी
कवि के प्रहार से गूंज मार, आतंकवाद का अंत हुआ, जयकार पुरदन की करके,  हर्षिद फिर दिशा दिगंत हुआ
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि आचार्य भगवत दुबे ने सरस्वती की साधना केवल और केवल लोकमंगल के लिए की है । मानवाधिकार की चिंता करने वाले आचार्य भगवत दुबे ने अपनी सभी रचनाओं में जनसाधारण की पीड़ा, उसकी सौंदर्य, मानव-करूणा, विश्व-पे्रम और लोक संस्कृति के मूल्यों को स्थापित किया है । शोषण और दमन चाहे प्रकृति और प्र्यावरण का हो, चाहे वनवासियों और स्त्रियों का हो, चाहे विश्वशांति और सद्भाव का हो-कवि आचार्य भगवत दुबे की चिंता का मूल विषय वहीं है और कवि केवल इस चिंता के बखान तक ही अपने को सीमित नहीं रखता है बल्कि व्यावहारिक समाधान सुझाता है, ताकि विश्व बंधुत्व की स्थापना हो, मनुष्य और प्रकृति सहचर बनें, अशिव की क्षति हो और सत्य, शिव, सुन्दर की स्थापना हो सके तथा विश्व कल्याण हेतु आत्मबलिदान की भावना का विकास हो सके । यदि यह सब हो सके तो निश्चय ही यह धरती और खूबसूरत बनेगी, और रहने लायक बनेगी तथा नयी पीढ़ी को सचमुच एक सुरक्षित भविष्य मिल सकेगा ।
मचलते, रूठते, नटखट हमें ठन गन बताने हैं, हम इनके नाज-नखरों को सदा हॅंसकर उठाते हैं
कहीं से लौटकर आते हैं जब चिंतित थके-हारे, उठाकर गोद में बच्चों को सब गम भूल जाते हैं
खुदा का नूर, जन्नत के नजारे भी दिखें इनमें पंखेरू गंध के, घर में हमारे चहचहाते हैं ।
कविता वाचक्नवी,
द्वारा-उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सीाा, खैरताबाद, हैदराबाद-500004
कृति-  दधीचि (महाकाव्य)
प्रणेता-  आचार्य भगवत दुबे, जबलपुर
प्रकाशक- समय प्रकाशन, पटपड़गंज दिल्ली
मूल्य-  चार सौ रूपये

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