Tuesday, 20 December 2011
दधीचि (महाकाव्य)
समीक्षा
चन्द्रपाल शर्मा, ‘शीलेश‘
समय प्रकाशन दिल्ली से 1998 में प्रकाशित आचार्य भगवत दुबे का महाकाव्य दधीचि‘ आधुनिक मशीनी वातातरण में प्रबंध काव्य की आवश्यकता, उपयोगिता और गरिमा की पूति करता है । गीत और गजल के व्यक्तिगत अनुभूति के परिचायक सृजन के युग में यह कृति काव्यकी व्यापकता को प्रमाणित करते हुए अपनी प्रबन्धात्मकता में भी वर्तमान सामाजिक चेतना के आधारभूत बिन्दुओं का स्पर्श करती है तथा कथ्य की प्राचीनता, पौराणिकता एवं मिथकीयता को जीवित रखते हुए उनमें आधुनिक युगबोध के चित्र रूपायिता करती है । अखंड भारत की व्यापक अवधारणा को इंगित करती हुई अनुभूतियों, प्रकृति की रमणीयता, राज्य की सम्पन्नता, मानवीय संवेदना, राजसत्तापरक चेतना, लोकतांत्रिक विमर्श, गुरू गरिमा, नाद सौन्दर्य, कर्तव्यबोध, वर्तमान सन्दर्भों के बिम्बों, नारी सम्मान, आध्यामिकता, पवुरूषार्थ, दिव्यता, युद्धचित्रों, प्रभावी और सरस अभिव्यक्तियों, तथा काव्य-सौन्दर्य के विविध तत्वों का चित्रण इस कृति में शिल्प के विविध उपादानपों से जीवन्त हुआ है । सम्पूर्ण कृति में प्रकृति अपने विविध रूपों में व्याप्त है । मानवीकरण की एक पंक्ति देखें-
बल्लरियों को सींच हृदय से तरूवर गले मिले थे ।
दधीचि में जहां एक ओर अभिव्यक्ति के आधुनिक उपादानों का प्रयोग हुआ है वहीं दूसरी ओर रीतिकालीन तत्वों का भी प्रयोग मिलता है । नखशिख वर्णन की दो पंक्तियों को देखें-
पीन पयोधर छीनकटि नाभि भंवर गंभीर ।
उरू नितम्ब वाही निरख, सुर मुनि हुए अधीर ।
उरू नितम्ब वाही निरख, सुर मुनि हुए अधीर ।
इस कृति में जीवन मूल्यों और भारतीय संस्कृति को जीवन्त रूप में प्रक्षेपित किया गया है । पश्चिमी संस्कृति और उसकी प्रभाव से कृति को बचाते हुए आचार्य भगवत दुबे ने अत्यंत शालीन और शेम्य मानव व्यवहार के सन्दर्भ प्रस्तुत किये हैं ं। प्रणय इच्छा जागृत हो जाने पर भी प्रातथेयी दधीचि से कहती है-
स्वर्ग जिसके द्वार पर आकर खड़ा, कौन है संसार मेंउससे बड़ा
किन्तु संयम, शील है वनवास में, ले पिताश्री को प्रथम विश्वास में ।
पिता की अनुमति से विवाह करना भारतीय परंपरा का द्योतक है ।
किन्तु संयम, शील है वनवास में, ले पिताश्री को प्रथम विश्वास में ।
पिता की अनुमति से विवाह करना भारतीय परंपरा का द्योतक है ।
इस महाकाव्य में वर्तमान युग की समस्याओं को स्थान-स्थान पर उभारा गया है । देखें-
सत्ताधीशों पर जब सत्तामद छा जाता, तब विनाश क्या भला किसी से टाला जाता ।
कवि ने प्रजातंत्र के अंकुर भी प्राचीन कथा धरातल में प्रस्फुटित किये हैं । यथा-
भले हो शासक विज्ञ, समर्थ तदपि संसद स्वीकृति अनिवार्य
जरूरी जनमत का विश्वास सदन से हर निर्णय स्वीकार्य ।
जरूरी जनमत का विश्वास सदन से हर निर्णय स्वीकार्य ।
आज पीडि़तों और महिलाओं के संरक्षण एवं उत्थान के जो वैचारिक आन्दोलन चल रहे हैं उनकी आत्मा दधीचि महाकाव्य में व्याप्त प्रतीत होती है । पीडि़त नारी के प्रति दधीचि का कर्तव्य बोध उच्चतम शिखर पर स्थापित है । यथा-
कोई नहीं समर्थ दिखा जो जाकर उसे बचाता ।
अबला की रक्षार्थ भला कैसे में स्वयं न जाता ।
यदि सतीत्व लुट जाने देता जाकर नहीं बचाता ।
तब बोलो इस वसुंधरा पर मुंह किसको दिखलाता ।
अबला की रक्षार्थ भला कैसे में स्वयं न जाता ।
यदि सतीत्व लुट जाने देता जाकर नहीं बचाता ।
तब बोलो इस वसुंधरा पर मुंह किसको दिखलाता ।
भाषा की रमणीयता, सादगी और गतिशीलता ने अभिव्यक्ति में सुखद आयचाम जोडे़ हैं तथा ध्वन्यात्मकता एवं िचत्रोपमता जैसे तत्वों को जीवन्त किया है । एक युद्धचित्र दृष्टव्य है-
मल्लयुद्ध रत महामत्त भट वृत्र, पवुरन्दर
घूम-घूमकर धूम-धमाधम करें धुरन्दर ।।
म्ुष्ठि प्रहार, पछाड़, दहाडें़ फिर ललकारें
क्रें भयानक युद्ध उभयभट दांव न हारे ।।
घूम-घूमकर धूम-धमाधम करें धुरन्दर ।।
म्ुष्ठि प्रहार, पछाड़, दहाडें़ फिर ललकारें
क्रें भयानक युद्ध उभयभट दांव न हारे ।।
इसी प्रकार ध्सनात्मकता और नाद सौन्दर्य भी काव्य सौन्दर्य में वृद्धि करता है । दृष्टव्य है-
धराधाम को धो-धो
पवन करती दुग्ध धवलता ।
पवन करती दुग्ध धवलता ।
महाकाव्य के शीस्त्रीय अभिलक्षणों का अनुसरण करते हुए आचार्य भगवत दुबे ने ‘दधीचि‘ कृति को महाकाव्य के धरातल पर खड़ा किया है जिसमें मंगलाचरण, ऋतु वर्णन, धीरोदात्त-दानशील नायक, सर्ग के कथ्य की प्रथम छन्द में विज्ञप्ति, जीवन मूल्यों और जनकल्याण का लक्ष्य, आध्यात्मिकता आदि तत्व कथानक की बुनावट में स्वाभाविक रूप् में जीवन्त हुए हैं तथ सत्य, शिव एवं सौन्दर्य का प्रतिपादन क1ृति का पावन श्रंगार करता है । छन्दों की विविधता और परिव0तक्वता कृतिकार की छान्दसिक क्षमताओं की गहराई का उदघाटन करती है । कुंडलियाॅं, मनहरण, दोहे, यहां तक कि प्रयाण गीत की लय को भी कवि ने नहीं छोड़ा है यथा-
रसाल गात आरूणी, सुमन्द गंध वारूणी
दिशा-दिगंत रजनी, मनोज-मान भजनी
दिशा-दिगंत रजनी, मनोज-मान भजनी
यह कृति साहित्य के विविध आन्दोलनों में दबी प्रबंधात्मकता की आत्मा को एक पुष्ट शरीर प्रदान कर उसे काव्य जगत में अवतरित करती है । शिल्प सौन्दर्य के आकर्षक आयामों, युगबोध, लोकनांत्रिक अवधारणाओं, जीवन मूल्यों, सात्विक चिंतन, पुरूषार्थ त्रिवर्ग । धर्म अर्थ और काम का इन्दधनुषी रूपायन करती हुई यह कृति हिन्दी साहित्य जगत में महाकाव्य के द्वार पुनः खोलने की भूमिका निभा सकती है ।
अभिव्यक्ति में कुछ क्षम्य त्रुटियां हैं जैसे ‘आप‘ और ‘तुम्हें‘ का एक ही संदर्भ में प्रयोग यथा आप आमंत्रण अगर स्वीकार लें, हम तुम्हें सभार अंगीकार लें ।
यहां आप और तुम्हें में व्यावहारिक विसंगति है परंतु स्वीकार लें और ‘‘अंगीकार लें‘‘ में स्वीकार
यहां आप और तुम्हें में व्यावहारिक विसंगति है परंतु स्वीकार लें और ‘‘अंगीकार लें‘‘ में स्वीकार
तथा ‘‘अंगीकार‘ शब्दों का कियाकरण कर देना हिन्दी की कोशीय पूंजी की वृद्धि में सहायक है। उत्तम मुद्रण और आकर्षक जिल्द में 404 पृष्ठ की 400 रू. मूल्य की यह कृति हिन्दी काव्यजगत की स्थायी निधि सिद्ध होगी ऐसा विश्वास किया जा सकता है ।
Dadhichi Sameeksha
देवकार्यार्थ प्रतिक्षण अस्थियों को ब्रज में ढालते ‘दधीचि‘
समीक्षक डा. राम सनेही लाल शर्मा ‘मायावर‘ डी लिट्
भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ तत्ववेत्ता ललित निबंधकार स्व. कुबेरनाथ राय ने किसी निबंध में कहा है कि हमारा समूचा युग बोनों का युग है । बौनी इच्छाएं, बौने चरित्र, बौनी कल्पनाएॅ और बौने मन, इसलिए इस युग के रचनाकार कोई महाकाव्य नहीं दे पारहे, परन्तु आचार्य भगवत दुबे का ‘समय प्रकाशन‘ दिल्ली से सद्य प्रकाशित ‘दधीचि‘ इसका अपवाद है । देवासुर संग्राम में बृत्रासुर के आतंक से त्रस्त देवताओं की विजय कामनाओं के इन्द्र के लिए वज्र बनाने को अस्थियों का दान करने वाले पौराणिक ऋषि दधीचि से भारतीय मनीषा भीली भांति परिचित हैं । दधीचि, त्याग की ज्वलन्त शिखा और परोपकार का ऐसा उत्तुंग शिखर है, जिसे देख-देख कर भारतीय मन आह्लादित और आनन्दित होता रहा है । यह महाकाव्य संवेदनशील कवि ने अपनी- ‘‘अहर्निश वन्दनीया, स्नेह सलिला ममतामयी माॅं श्रीमती रामकली दुबे को सादर समर्पित‘ किया है । परम्परानुसार महाकाव्य नौ सर्गों में विभक्त है जिनके नाम क्रमशः -‘दधीचि, सुरक्षा, गुरू, वृत्तासुर, मंत्रणा, सुषमा, आश्रम, बलिदान तथा युद्ध है । प्रारम्भ में मंगलाचरण और अन्त में दधीचि बंदना भी दी गयी है । दधीचि की कथा श्रीमद्भागवत, शिवपुराण, महाभारत, स्कन्द पुराण उपनिषद तैत्तिरीय संहिता तथा विभिन्न चरित कोषों में वर्णित है । दधीचि मंत्रवृष्टा ऋषि थे । आचार्य भगवत दुबे ने अपनी मौलिक कल्पना से इस चिर पुरातन आख्यान को एक नवीन स्वरूप प्रदान कर दिया है । कवि ने दधीचि को पहले राजा स्वीकार किया है । फिर उनकी आदर्श राज्य व्यवस्था का वर्णन किया है । अपनी बात में उन्होंने स्वयं कहा है
‘‘मैने निश्चय कर लिया कि राजा दधीचि से ऋषि दधीचि तक का वर्णन कर मैं अपनी बात कहूंगा । इस महाकाव्य में दधीचि सर्ग का आधार मेरी यही मौलिक कल्पना शीलता है, जो पुराण प्रसिद्ध दधीचि के आख्यान से प्र्याप्त भिन्न होने हुए भी मूल कथानक से सामंजस्य बनाकर ही सुविकसित हुई है । (पृ.-34)
कवि ने यह भी स्वीकार किया है कि जिस प्रशासनिक व्यवस्था की उसने कल्पना की है, वह कल्पना होते हुए भी तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल है । पुस्तक गहन अध्ययन के उपरान्त लिखी गयी है । यह महाकाव्य की पंक्ति-पंक्ति और पृष्ठ-पृष्ठ से ध्वनित है । पौराणिकता की धरा पर कवि ने अपने युग के समाधान खोजे हैं । युद्ध की भयंकरता, शान्ति की आवश्यकता, मूल्य संक्रमण और देवासुर संग्राम आदि को कवि ने अपनी तत्वदर्शी मनीषा से प्रस्तुत किया है । कवि संस्कृति की रक्षा के लिए सचेष्ट है । यह मूल्यों का ऐसा देव-दुर्लभ गढ़ निर्मित करना चाहता है जिसमें रहकर मानवता पूर्ण सुरक्षित रह सके । भाषा पर कवि का अबाध अधिकार है । केवल कुछ पंक्तियां देखने से ही यह सत्य प्रमाणित हो जायेगा । इन्द्र और वृत्तासुर का युद्ध वर्णन देखें:-
‘‘इक ओर वनुज कज्जल गिरि सा, तो लगते मेरू परंदर थे ।
दोनों पहाड़ करके दहाड़ टकाराकर गिरे भयंकर थे ।।
विक पाल डरे दिग्गज डोले, घबड़ाकर चतुर्दिशाओं के ।
जब वाण परंदर के छोड़े जाज्वल्यमान उल्काओं के ।। ( पृ.-23)
वस्तुतः ‘दधीचि‘ केवल पौराणिक कथा का पुनराख्यान भर नहीं है, यह उस कथा में आज के जीवन और जगत के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षितिज पर मंडराते प्रश्नों के समाधान की सारस्वत चेष्टा है ‘दधीचि‘ इस संत्रास, पीड़ा, तनाव, युद्ध और कूटनीतिक चालों से त्रस्त जगत के उद्धार का प्रयास है । दधीचि संतृप्त युग के वृक्ष पर शांति का लेप है। ‘दधीचि‘ दिशाहारा मानवता के लिए मार्गदर्शक यंत्र है और ‘दधीचि‘ अनास्था के धुएंॅ में घुटती मानवता के लिए आस्था का दक्षिणी पवन है यह महाकाव्य निश्चित रूप से कालजयी कृति होने के कारण साहित्य जगत में सम्मानित होगा ।
404 पृष्ठ का महाकाव्य अच्छे कागज पर त्रुटिहीन मुद्रित हुआ है मुख्य पृष्ठ आकर्षक बहुरंगी और ग्रंथ के संदेश को पाठको तक पहुंचाने में समर्थ है । परन्तु पुस्तक मूल्य 400/- सामान्य पाठक की सामथ्र्य से कुछ अधिक लगता है इस उत्कृष्ठ ग्रंथ को जनसुलभ बनाने के लिए पेपर या पाकेट बुक मेें इसका सस्ता संस्करण अवश्य प्रकाशित करना चाहिए ।
स्मीक्ष्यकृति - दधीचि रीडर
श्रचनाकार - आचार्य भगवत दुबे शोध एवं स्नातकोत्तर
मूल्य - 400/- (हिन्दी विभाग)
पृष्ठ सं. - 404 एस.आर.के.(पी.जी.)
प्रकाशक - समय प्रकाशन काॅलेज, फीरोजाबाद, उ.प्र.
13 बी, संचार लोक अपार्टमेंट पिन - 283203
पप्पड़गंज डिपो, दिल्ली-110032
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