Tuesday, 20 December 2011

Dadhichi Sameeksha

देवकार्यार्थ प्रतिक्षण अस्थियों को ब्रज में ढालते ‘दधीचि‘

समीक्षक डा. राम सनेही लाल शर्मा ‘मायावर‘ डी लिट्
 भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ तत्ववेत्ता ललित निबंधकार स्व. कुबेरनाथ राय ने किसी निबंध में कहा है कि हमारा समूचा युग बोनों का युग है । बौनी इच्छाएं, बौने चरित्र, बौनी कल्पनाएॅ और बौने मन, इसलिए इस युग के रचनाकार कोई महाकाव्य नहीं दे पारहे, परन्तु आचार्य भगवत दुबे का ‘समय प्रकाशन‘ दिल्ली से सद्य प्रकाशित ‘दधीचि‘ इसका अपवाद है । देवासुर संग्राम में बृत्रासुर के आतंक से त्रस्त देवताओं की विजय कामनाओं के इन्द्र के लिए वज्र बनाने को अस्थियों का दान करने वाले पौराणिक ऋषि दधीचि से भारतीय मनीषा भीली भांति परिचित हैं । दधीचि, त्याग की ज्वलन्त शिखा और परोपकार का ऐसा उत्तुंग शिखर है, जिसे देख-देख कर भारतीय मन आह्लादित और आनन्दित होता रहा है । यह महाकाव्य संवेदनशील कवि ने अपनी- ‘‘अहर्निश वन्दनीया, स्नेह सलिला ममतामयी माॅं श्रीमती रामकली दुबे को सादर समर्पित‘ किया है । परम्परानुसार महाकाव्य नौ सर्गों में विभक्त है जिनके नाम क्रमशः -‘दधीचि, सुरक्षा, गुरू, वृत्तासुर, मंत्रणा, सुषमा, आश्रम, बलिदान तथा युद्ध है । प्रारम्भ में मंगलाचरण और अन्त में दधीचि बंदना भी दी गयी है । दधीचि की कथा श्रीमद्भागवत, शिवपुराण, महाभारत, स्कन्द पुराण उपनिषद तैत्तिरीय संहिता तथा विभिन्न चरित कोषों में वर्णित है । दधीचि मंत्रवृष्टा ऋषि थे । आचार्य भगवत दुबे ने अपनी मौलिक कल्पना से इस चिर पुरातन आख्यान को एक नवीन स्वरूप प्रदान कर दिया है ।
 कवि ने दधीचि को पहले राजा स्वीकार किया है । फिर उनकी आदर्श राज्य व्यवस्था का वर्णन किया है । अपनी बात में उन्होंने स्वयं कहा है
 ‘‘मैने निश्चय कर लिया कि राजा दधीचि से ऋषि दधीचि तक का वर्णन कर मैं अपनी बात कहूंगा । इस महाकाव्य में दधीचि सर्ग का आधार मेरी यही मौलिक कल्पना शीलता है, जो पुराण प्रसिद्ध दधीचि के आख्यान से प्र्याप्त भिन्न होने हुए भी मूल कथानक से सामंजस्य बनाकर ही सुविकसित हुई है । (पृ.-34)
कवि ने यह भी स्वीकार किया है कि जिस प्रशासनिक व्यवस्था की उसने कल्पना की है, वह कल्पना होते हुए भी तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल है । पुस्तक गहन अध्ययन के उपरान्त लिखी गयी है । यह महाकाव्य की पंक्ति-पंक्ति और पृष्ठ-पृष्ठ से ध्वनित है ।  पौराणिकता की धरा पर कवि ने अपने युग के समाधान खोजे हैं ।  युद्ध की भयंकरता, शान्ति की आवश्यकता, मूल्य संक्रमण और देवासुर संग्राम आदि को कवि ने अपनी तत्वदर्शी मनीषा से प्रस्तुत किया है । कवि संस्कृति की रक्षा के लिए सचेष्ट है । यह मूल्यों का ऐसा देव-दुर्लभ गढ़ निर्मित करना चाहता है जिसमें रहकर मानवता पूर्ण सुरक्षित रह सके । भाषा पर कवि का अबाध अधिकार है । केवल कुछ पंक्तियां देखने से ही यह सत्य प्रमाणित हो जायेगा । इन्द्र और वृत्तासुर का युद्ध वर्णन देखें:-
  ‘‘इक ओर वनुज कज्जल गिरि सा, तो लगते मेरू परंदर थे ।
दोनों पहाड़ करके दहाड़ टकाराकर गिरे भयंकर थे ।।
  विक पाल डरे दिग्गज डोले, घबड़ाकर चतुर्दिशाओं के ।
जब वाण परंदर के छोड़े जाज्वल्यमान उल्काओं के ।। ( पृ.-23)
 वस्तुतः ‘दधीचि‘ केवल पौराणिक कथा का पुनराख्यान भर नहीं है, यह उस कथा में आज के जीवन और जगत के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षितिज पर मंडराते प्रश्नों के समाधान की सारस्वत चेष्टा है ‘दधीचि‘ इस संत्रास, पीड़ा, तनाव, युद्ध और कूटनीतिक चालों से त्रस्त जगत के उद्धार का प्रयास है । दधीचि संतृप्त युग के वृक्ष पर शांति का लेप है। ‘दधीचि‘ दिशाहारा मानवता के लिए मार्गदर्शक यंत्र है और ‘दधीचि‘ अनास्था के धुएंॅ में घुटती मानवता के लिए आस्था का दक्षिणी पवन है यह महाकाव्य निश्चित रूप से कालजयी कृति होने के कारण साहित्य जगत में सम्मानित होगा ।
 404 पृष्ठ का महाकाव्य अच्छे कागज पर त्रुटिहीन मुद्रित हुआ है मुख्य पृष्ठ आकर्षक बहुरंगी और ग्रंथ के संदेश को पाठको तक पहुंचाने में समर्थ है । परन्तु पुस्तक मूल्य 400/- सामान्य पाठक की सामथ्र्य से कुछ अधिक लगता है इस उत्कृष्ठ ग्रंथ को जनसुलभ बनाने के लिए पेपर या पाकेट बुक मेें इसका सस्ता संस्करण अवश्य प्रकाशित करना चाहिए ।
स्मीक्ष्यकृति - दधीचि         रीडर
श्रचनाकार - आचार्य भगवत दुबे               शोध एवं स्नातकोत्तर
मूल्य - 400/-                    (हिन्दी विभाग)
पृष्ठ सं. - 404                      एस.आर.के.(पी.जी.)
प्रकाशक - समय प्रकाशन                काॅलेज, फीरोजाबाद, उ.प्र.
  13 बी, संचार लोक अपार्टमेंट              पिन - 283203
  पप्पड़गंज डिपो, दिल्ली-110032

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