Tuesday, 20 December 2011

Dadhichi Sameeksha

Dadhichi Samman

Deshbhandu Newspaper regarding Dadhichi

दधीचि (महाकाव्य)
समीक्षा 
                  चन्द्रपाल शर्मा, ‘शीलेश‘
 समय प्रकाशन दिल्ली से 1998 में प्रकाशित आचार्य भगवत दुबे का महाकाव्य दधीचि‘ आधुनिक मशीनी वातातरण में प्रबंध काव्य की आवश्यकता, उपयोगिता और गरिमा की पूति करता है । गीत और गजल के व्यक्तिगत अनुभूति के परिचायक सृजन के युग में यह कृति काव्यकी व्यापकता को प्रमाणित करते हुए अपनी प्रबन्धात्मकता में भी वर्तमान सामाजिक चेतना के आधारभूत बिन्दुओं का स्पर्श करती है तथा कथ्य की प्राचीनता, पौराणिकता एवं मिथकीयता को जीवित रखते हुए उनमें आधुनिक युगबोध के चित्र रूपायिता करती है । अखंड भारत की व्यापक अवधारणा को इंगित करती हुई अनुभूतियों, प्रकृति की रमणीयता, राज्य की सम्पन्नता, मानवीय संवेदना, राजसत्तापरक चेतना, लोकतांत्रिक विमर्श, गुरू गरिमा, नाद सौन्दर्य, कर्तव्यबोध, वर्तमान सन्दर्भों के बिम्बों, नारी सम्मान, आध्यामिकता, पवुरूषार्थ, दिव्यता, युद्धचित्रों, प्रभावी और सरस अभिव्यक्तियों, तथा काव्य-सौन्दर्य के विविध तत्वों का चित्रण इस कृति में शिल्प के विविध उपादानपों से जीवन्त हुआ है । सम्पूर्ण कृति में प्रकृति अपने विविध रूपों में व्याप्त है । मानवीकरण की एक पंक्ति देखें-
 बल्लरियों को सींच हृदय से तरूवर गले मिले थे ।
 दधीचि में जहां एक ओर अभिव्यक्ति के आधुनिक उपादानों का प्रयोग हुआ है वहीं दूसरी ओर रीतिकालीन तत्वों का भी प्रयोग मिलता है । नखशिख वर्णन की दो पंक्तियों को देखें-

 पीन पयोधर छीनकटि नाभि भंवर गंभीर ।
 उरू नितम्ब वाही निरख, सुर मुनि हुए अधीर ।

 इस कृति में जीवन मूल्यों और भारतीय संस्कृति को जीवन्त रूप में प्रक्षेपित किया गया है । पश्चिमी संस्कृति और उसकी प्रभाव से कृति को बचाते हुए आचार्य भगवत दुबे ने अत्यंत शालीन और शेम्य मानव व्यवहार के सन्दर्भ प्रस्तुत किये हैं ं। प्रणय इच्छा जागृत हो जाने पर भी प्रातथेयी दधीचि से कहती है-

 स्वर्ग जिसके द्वार पर आकर खड़ा, कौन है संसार मेंउससे बड़ा
 किन्तु संयम, शील है वनवास में, ले पिताश्री को प्रथम विश्वास में ।

पिता की अनुमति से विवाह करना भारतीय परंपरा का द्योतक है ।
 इस महाकाव्य में वर्तमान युग की समस्याओं को स्थान-स्थान पर उभारा गया है । देखें-
 सत्ताधीशों पर जब सत्तामद छा जाता, तब विनाश क्या भला किसी से टाला जाता ।
कवि ने प्रजातंत्र के अंकुर भी प्राचीन कथा धरातल में प्रस्फुटित किये हैं । यथा-
 भले हो शासक विज्ञ, समर्थ तदपि संसद स्वीकृति अनिवार्य
 जरूरी जनमत का विश्वास सदन से हर निर्णय स्वीकार्य ।

आज पीडि़तों और महिलाओं के संरक्षण एवं उत्थान के जो वैचारिक आन्दोलन चल रहे हैं उनकी आत्मा दधीचि महाकाव्य में व्याप्त प्रतीत होती है । पीडि़त नारी के प्रति दधीचि का कर्तव्य बोध उच्चतम शिखर पर स्थापित है । यथा-

 कोई नहीं समर्थ दिखा जो जाकर उसे बचाता ।
 अबला की रक्षार्थ भला कैसे में स्वयं न जाता ।
 यदि सतीत्व लुट जाने देता जाकर नहीं बचाता ।
 तब बोलो इस वसुंधरा पर मुंह किसको दिखलाता ।

 

भाषा की रमणीयता, सादगी और गतिशीलता ने अभिव्यक्ति में सुखद आयचाम जोडे़ हैं तथा ध्वन्यात्मकता एवं िचत्रोपमता जैसे तत्वों को जीवन्त किया है । एक युद्धचित्र दृष्टव्य है-
 मल्लयुद्ध रत महामत्त भट वृत्र, पवुरन्दर
 घूम-घूमकर धूम-धमाधम करें धुरन्दर ।।
 म्ुष्ठि प्रहार, पछाड़, दहाडें़ फिर ललकारें
 क्रें भयानक युद्ध उभयभट दांव न हारे ।।
 इसी प्रकार ध्सनात्मकता और नाद सौन्दर्य भी काव्य सौन्दर्य में वृद्धि करता है । दृष्टव्य है-
 धराधाम को धो-धो
 पवन करती दुग्ध धवलता ।
 महाकाव्य के शीस्त्रीय अभिलक्षणों का अनुसरण करते हुए आचार्य भगवत दुबे ने ‘दधीचि‘ कृति को महाकाव्य के धरातल पर खड़ा किया है जिसमें मंगलाचरण, ऋतु वर्णन, धीरोदात्त-दानशील नायक, सर्ग के कथ्य की प्रथम छन्द में विज्ञप्ति, जीवन मूल्यों और जनकल्याण का लक्ष्य, आध्यात्मिकता आदि तत्व कथानक की बुनावट में स्वाभाविक रूप् में जीवन्त हुए हैं तथ सत्य, शिव एवं सौन्दर्य का प्रतिपादन क1ृति का पावन श्रंगार करता है । छन्दों की विविधता और परिव0तक्वता कृतिकार की छान्दसिक क्षमताओं की गहराई का उदघाटन करती है । कुंडलियाॅं, मनहरण, दोहे, यहां तक कि प्रयाण गीत की लय को भी कवि ने नहीं छोड़ा है यथा-
 रसाल गात आरूणी, सुमन्द गंध वारूणी
 दिशा-दिगंत रजनी, मनोज-मान भजनी
 यह कृति साहित्य के विविध आन्दोलनों में दबी प्रबंधात्मकता की आत्मा को एक पुष्ट शरीर प्रदान कर उसे काव्य जगत में अवतरित करती है । शिल्प सौन्दर्य के आकर्षक आयामों, युगबोध, लोकनांत्रिक अवधारणाओं, जीवन मूल्यों, सात्विक चिंतन, पुरूषार्थ त्रिवर्ग । धर्म अर्थ और काम का इन्दधनुषी रूपायन करती हुई यह कृति हिन्दी साहित्य जगत में महाकाव्य के द्वार पुनः खोलने की भूमिका निभा सकती है ।
 अभिव्यक्ति में कुछ क्षम्य त्रुटियां हैं जैसे ‘आप‘ और ‘तुम्हें‘ का एक ही संदर्भ में प्रयोग यथा  आप आमंत्रण अगर स्वीकार लें, हम तुम्हें सभार अंगीकार लें ।
 यहां आप और तुम्हें में व्यावहारिक विसंगति है परंतु स्वीकार लें और ‘‘अंगीकार लें‘‘ में स्वीकार
तथा ‘‘अंगीकार‘ शब्दों का कियाकरण कर देना हिन्दी की कोशीय पूंजी की वृद्धि में सहायक है।  उत्तम मुद्रण और आकर्षक जिल्द में 404 पृष्ठ की 400 रू. मूल्य की यह कृति हिन्दी काव्यजगत की स्थायी निधि सिद्ध होगी ऐसा विश्वास किया जा सकता है ।

Dadhichi Sameeksha

देवकार्यार्थ प्रतिक्षण अस्थियों को ब्रज में ढालते ‘दधीचि‘

समीक्षक डा. राम सनेही लाल शर्मा ‘मायावर‘ डी लिट्
 भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ तत्ववेत्ता ललित निबंधकार स्व. कुबेरनाथ राय ने किसी निबंध में कहा है कि हमारा समूचा युग बोनों का युग है । बौनी इच्छाएं, बौने चरित्र, बौनी कल्पनाएॅ और बौने मन, इसलिए इस युग के रचनाकार कोई महाकाव्य नहीं दे पारहे, परन्तु आचार्य भगवत दुबे का ‘समय प्रकाशन‘ दिल्ली से सद्य प्रकाशित ‘दधीचि‘ इसका अपवाद है । देवासुर संग्राम में बृत्रासुर के आतंक से त्रस्त देवताओं की विजय कामनाओं के इन्द्र के लिए वज्र बनाने को अस्थियों का दान करने वाले पौराणिक ऋषि दधीचि से भारतीय मनीषा भीली भांति परिचित हैं । दधीचि, त्याग की ज्वलन्त शिखा और परोपकार का ऐसा उत्तुंग शिखर है, जिसे देख-देख कर भारतीय मन आह्लादित और आनन्दित होता रहा है । यह महाकाव्य संवेदनशील कवि ने अपनी- ‘‘अहर्निश वन्दनीया, स्नेह सलिला ममतामयी माॅं श्रीमती रामकली दुबे को सादर समर्पित‘ किया है । परम्परानुसार महाकाव्य नौ सर्गों में विभक्त है जिनके नाम क्रमशः -‘दधीचि, सुरक्षा, गुरू, वृत्तासुर, मंत्रणा, सुषमा, आश्रम, बलिदान तथा युद्ध है । प्रारम्भ में मंगलाचरण और अन्त में दधीचि बंदना भी दी गयी है । दधीचि की कथा श्रीमद्भागवत, शिवपुराण, महाभारत, स्कन्द पुराण उपनिषद तैत्तिरीय संहिता तथा विभिन्न चरित कोषों में वर्णित है । दधीचि मंत्रवृष्टा ऋषि थे । आचार्य भगवत दुबे ने अपनी मौलिक कल्पना से इस चिर पुरातन आख्यान को एक नवीन स्वरूप प्रदान कर दिया है ।
 कवि ने दधीचि को पहले राजा स्वीकार किया है । फिर उनकी आदर्श राज्य व्यवस्था का वर्णन किया है । अपनी बात में उन्होंने स्वयं कहा है
 ‘‘मैने निश्चय कर लिया कि राजा दधीचि से ऋषि दधीचि तक का वर्णन कर मैं अपनी बात कहूंगा । इस महाकाव्य में दधीचि सर्ग का आधार मेरी यही मौलिक कल्पना शीलता है, जो पुराण प्रसिद्ध दधीचि के आख्यान से प्र्याप्त भिन्न होने हुए भी मूल कथानक से सामंजस्य बनाकर ही सुविकसित हुई है । (पृ.-34)
कवि ने यह भी स्वीकार किया है कि जिस प्रशासनिक व्यवस्था की उसने कल्पना की है, वह कल्पना होते हुए भी तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल है । पुस्तक गहन अध्ययन के उपरान्त लिखी गयी है । यह महाकाव्य की पंक्ति-पंक्ति और पृष्ठ-पृष्ठ से ध्वनित है ।  पौराणिकता की धरा पर कवि ने अपने युग के समाधान खोजे हैं ।  युद्ध की भयंकरता, शान्ति की आवश्यकता, मूल्य संक्रमण और देवासुर संग्राम आदि को कवि ने अपनी तत्वदर्शी मनीषा से प्रस्तुत किया है । कवि संस्कृति की रक्षा के लिए सचेष्ट है । यह मूल्यों का ऐसा देव-दुर्लभ गढ़ निर्मित करना चाहता है जिसमें रहकर मानवता पूर्ण सुरक्षित रह सके । भाषा पर कवि का अबाध अधिकार है । केवल कुछ पंक्तियां देखने से ही यह सत्य प्रमाणित हो जायेगा । इन्द्र और वृत्तासुर का युद्ध वर्णन देखें:-
  ‘‘इक ओर वनुज कज्जल गिरि सा, तो लगते मेरू परंदर थे ।
दोनों पहाड़ करके दहाड़ टकाराकर गिरे भयंकर थे ।।
  विक पाल डरे दिग्गज डोले, घबड़ाकर चतुर्दिशाओं के ।
जब वाण परंदर के छोड़े जाज्वल्यमान उल्काओं के ।। ( पृ.-23)
 वस्तुतः ‘दधीचि‘ केवल पौराणिक कथा का पुनराख्यान भर नहीं है, यह उस कथा में आज के जीवन और जगत के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षितिज पर मंडराते प्रश्नों के समाधान की सारस्वत चेष्टा है ‘दधीचि‘ इस संत्रास, पीड़ा, तनाव, युद्ध और कूटनीतिक चालों से त्रस्त जगत के उद्धार का प्रयास है । दधीचि संतृप्त युग के वृक्ष पर शांति का लेप है। ‘दधीचि‘ दिशाहारा मानवता के लिए मार्गदर्शक यंत्र है और ‘दधीचि‘ अनास्था के धुएंॅ में घुटती मानवता के लिए आस्था का दक्षिणी पवन है यह महाकाव्य निश्चित रूप से कालजयी कृति होने के कारण साहित्य जगत में सम्मानित होगा ।
 404 पृष्ठ का महाकाव्य अच्छे कागज पर त्रुटिहीन मुद्रित हुआ है मुख्य पृष्ठ आकर्षक बहुरंगी और ग्रंथ के संदेश को पाठको तक पहुंचाने में समर्थ है । परन्तु पुस्तक मूल्य 400/- सामान्य पाठक की सामथ्र्य से कुछ अधिक लगता है इस उत्कृष्ठ ग्रंथ को जनसुलभ बनाने के लिए पेपर या पाकेट बुक मेें इसका सस्ता संस्करण अवश्य प्रकाशित करना चाहिए ।
स्मीक्ष्यकृति - दधीचि         रीडर
श्रचनाकार - आचार्य भगवत दुबे               शोध एवं स्नातकोत्तर
मूल्य - 400/-                    (हिन्दी विभाग)
पृष्ठ सं. - 404                      एस.आर.के.(पी.जी.)
प्रकाशक - समय प्रकाशन                काॅलेज, फीरोजाबाद, उ.प्र.
  13 बी, संचार लोक अपार्टमेंट              पिन - 283203
  पप्पड़गंज डिपो, दिल्ली-110032

Tuesday, 29 November 2011

COMMENTS ON BOOKS (SWATANTRAMAT)

COMMENTS ON BOOKS

लोक-सरोकार के महाकवि आचार्य भगवत दुबे
कविता वाचक्नवी
 आचार्य भगवत दुबे (1943) मनुष्यता के पक्ष में कलम सम्हालने वाले वरिष्ठ हिन्दी रचनाकारों में शामिल हैं। उन्होंने काव्य, कथा और आलोचना के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा के ज्वलंत प्रमाण दिए हैं । उन्हें साहित्य की समस्त विधाआंे के निष्णात शिल्पी (इन्द्रमणि उपाध्याय) कहना सर्वथा उचित है । भगवत दुबे की प्रकाशित कृतियों में स्मृतिगंधा, प्रणय ऋचाएं, अक्षर मंत्र, शब्दों के संवाद, हरीतिमा ये व्याकुल वनपाॅंखी, रक्षाकवच, वनवासी, संकल्परथी, बजे नगाड़े काल के, शंखनाद, जियो और जीने दो-जैसी काव्य कृतियों के अतिरिक्त गजल-संग्रह, चुभन, महाकाव्य-दीधीचि तथा कहानी-संग्रह-विषकन्या एवं दूल्हादेव सम्मिलित हैं । उनकी साहित्य सेवाओं के लिए उन्हें विविध सम्मान, अलंकरण और पुरस्कार भी प्राप्त हो चुके हैं ।
 आचार्य भगवत दुबे के लिए कविता मनोरंजन नहीं बल्भ्कि एक समाजोपयोगी सोदृदेश्य उत्पादन है । वे मानते हैं कि कविता के द्वारा जन, मन को आंदोलित किया जा सकता है और समाज को शिक्षित भी किया जा सकता है- भले ही इसमें किसी को कवित्व की हानि होती दिखाई दे । इनका मानवतावादी गीतसंग्रह ‘जियो और जीने दो‘ ऐसी ही सोदृदेश्य कृति है, जिसकी रचना मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को ध्यान में रखकर की गई है। प्रारंभ में संयुक्त राष्ट्रसंघ महासभा द्वारा 10 दिसंबर, 1948 को अंगीकृत मानव अधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा को प्रकाशित किया गयाहै, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह कृति एक प्रकार के प्रायोजित लेखन का परिणाम है । प्रायोजित लेखन प्रचारात्मक होता है और लोक-मानस में पैठना उसका लक्ष्य होता है । कहना न होगा कि ‘जियो और जीने दो‘ की रचनाएं इस लक्ष्य में सफल हैं । निबंध के विषयों को छंदोबद्ध रूप में प्रस्तुत करने में आचार्य जी अपना सानी रहीं रखते । इसके लिए वे नारों की तरह इस्तेमाल होने योग्य पंक्तियों की रचना करते हैं, मुंहावरांे और लोकोक्तियों काप्रयोग करते हैं तथा इतिवृत की शैली अपनाते हैं, जैसे-
 मानवाधिकारों की रक्षा होने तभी भलाई है, असामाजिक तत्वों से लड़ना हमें लड़ाई है
विश्व व्यवस्था छिन्न-भिन्न है मानवीय अधिकारों की, मानवता शिकार होती है शोषण, भ्रष्ट, भटैतों के
धन के आगे, आज सत्य की होती नहीं सुनाई है, असामाजिक तत्वों से लड़ना हमें लड़ाई है ।
गजल के शिल्प का भी कवि ने संुदर प्रयोग किया है-
 क्या लिखूं राष्ट्र की रपट बन्धु, नेतृत्व गया है भटक बन्ध
 कश्मीर, आन्ध्र, आसाम सहित, घायल है केरल कटक बन्धु
 चूहे चालाक, चुनावों में, दिग्गज को देने पटक बन्धु
 आचार्य, मौलवी विष उगलें, यह बात, रही है खटक बन्धु
ऐसी रचनाओं में उपदेशात्मकता का खतरा बराबर बना रहता है । ‘जियो और जीने दो‘ की कविताएं भी इसका अपवाद नहीं है । ‘शोषण हो निर्मूल‘ शीर्षक गीत में कवि ने उपदेशात्मक मुद्रा में कहा है कि केवल अधिकारों का ही नहीं कर्तव्यों का भी ख्याल रखना चाहिए, अधिकारियों का छल और भ्रष्टाचार का मार्ग छोड़ देना चाहिए, ऐसे खेल नहीं खेलने चाहिए जो खुद पर आपत्ति ला दें, ऐसी हठधर्मिता से बचना चाहिए जो विकास की गति को अवरूद्ध कर दें, श्रमिक, गरीब और दलिीत वर्ग को उनके मौलिक अधिकार दिलाने का दृढ़ संकल्प लेकर शंति के सुखद सबेरे को लाने का प्रयत्न करना चाहिए।
 ग्राम्य जीवन, प्रदूषण, पर्यावरण, जल, जंगल, जमीन, बांध एवं आदिवासियों के विस्थापन पर केन्द्रित कविता-संग्रह ये व्याकुल वनपाॅंखी में आचार्य भगवत दुबे की भारतीय लोक-संस्कृति के प्रति सच्ची चिंता अभिव्यक्त हुई है । इस कृति में कवि ने सहज संपे्रश्य बोलचाल की भाषा का बहुत सुंदर काव्यात्मक प्रयोग किया है । नर्मदा को गंगा की ही भांति माॅं कहा जाता है । उसकी गति में आलौकिक संगीत सुनाई देता है ।
 बज रहे नुपूर छमाछम, जें बांधे हो पाॅंव में
 मंद, कल-कल गूंजता स्वर, मार्ग के हर गांव में
 भर रहीं आह्लाद तुम, संगीतमय झंकार दे
परंतु कवि का यह सांगीतिक आह्लाद अधिक देर तक नहीं रह पाता । क्योंकि नर्मदा के कंकर भले ही शंकर हो गए हों, उसके तटवासी, वनवासी आदिवासी जन अशिक्षा और शोषण के शिकार ही बनते रहे हैं । कवि चिंति है कि जिस आयु में बच्चों को बस्ते दिए जाने चाहिए थे, उनके हाथों में हथौड़े और घन थमा दिए गए और स्वतंत्रता के बाद भी शासेषण बरकरार हैं । कविता के एक ही अंश में व्यंजना का चरमोत्कर्ष और अमिधा की सादगी भरने में आचार्य जी सिद्धहस्त हैं । सपनों के टूटने का एक चित्र दृष्टव्य है-
 इन्द्र धनुष बोए थे हमने, रंग उगे सब काले, दिखें प्रगति के प्रादर्शों पर, शोषण करने वाले
अपनी इसी व्यंजना और अमिधा की एक साथ तिरहवीं और सीधी चाल वाली काव्यभाषा के कारण ही ‘ये व्याकुल वनपाॅंखी‘ की रचनाएं सहज संप्रेषणीय बन पड़ी हैं । लोक में गहरे पैठने के लिए कवि ने लोकछंदों और लोकधुनों का भी सफल प्रयोग किया है । लोक-शैली के कारण कवि का संदेश या उपदेश भी पाठक को उबाता नहीं । भूकंप पर केन्द्रित एक फाग रचना की अंतिम पंक्तियां इस संदर्भ में विचारणीय है, जिसमें रचनाकार ने खड़ी बोली के पदों में क्षेत्रीय शब्दों और क्रियाओं को अन्तर्निविष्ट करके काव्यभाषा को अधिक जीवन्त बना दिया है ।
 फैली मृतक सड़ांध, प्रकृति से खेल न करियो,    वृक्षारोपण सहित बनों की रक्षा करियो
 घर बनाओ जो कर सकें, भूकम्पन अवरोध, वरना कैसे झेल हो धरती माॅं को क्रोध
 धरो धरणी ने रूप रणचण्डी को बाॅंधों की आवश्यकता किसी से छिपी नहीं है लेकिन ऊॅंचे बाॅंधों ने उर्वर खेत-कछवरों को डुबाकर कितने परिवारों को निराश्रय और विस्थापित किया है, इसे वही जान सकता है जिसने भगवत दुबे की तरह गाॅंव गाॅंव, जंगल जंगल भटकते व्याकुल वनपांखियों से तादात्म्यकर लिया हो । इस विषय को लेकर एक ओरतो उन्होंने लंबी-लंबी इतिवृत्तात्मक कविताएं लिखी हैं परन्तु दूसरी ओर पर्यावरण संरक्षण जैसे उपदेशात्मक विषय को गीतों की कलात्म्क अभिव्यक्ति  प्रदान की है, जैसे-
 1. सहमी सिसक रहीं झोपडि़यांॅ, बढ़ती शीतनिशा मॅंहगाई
  घटते दिन ज्यों आमदनी से,
2. पाखण्डों का बोझ लदा तो, कूबड़-सी झुक गई अलगनी
3. शेष बचे वृक्षों के जहां अभी अंश, वहीं बचा नीर कहीं, आशा के हंस
हरे भरे दृश्य, वहीं फूल लाल लाल, गदराए गोरे-से महुआ के गाल
 ‘गाॅंव का पीपल पढ़ना‘ भगवत दुबे की श्रेष्ठ गजलों में से एक है । ‘ये व्याकुल वनपाॅंखी‘ की यह रचना प्रकृति के आॅंचल में जीने वाले वन्य प्राणियों, वनस्पति और वन-सहचरों को एक साथ लेकर चलती है। रचना धुगेर-सी उमड़ती है और करूणा का यथार्थ व अनूठा मिश्रण इतनी सहजता से करती है कि व्यंजना के पूर्णस्वर को भी लांघ जाती है। व्यंग्य और करूणा का सामंजस्य निर्विवाद रूप से गहन आत्मानुभूति का प्रमाण देता है । नई भंगिमा के साथ प्रस्तुत रचना शीत के कोहरे-सी देर तक छेदती रहती है, छाई रहती है-
 माॅंग खाली व पुछा आॅंख का जल पढ़ना, काई हिरणी भी वही वक्त से घायल पढ़ना
 इनमें अपनी ही बहिन बेटियां सिसकती हैं, किसी तवायफ की बजती हुई पायल पढ़ना
 आप शोहरत के लिए दूर, बहुत दूर गए, ऊब जाओ तो कभी गाॅं का पीपल पढ़ना
अपने गजल-संग्रह ‘चुभन‘ के आत्मकथ्य में आचार्य  भगवत दुबे ने यह मुद्दा जोर देकर उठाया है कि ‘गजल आज अपने इश्क-मिजाजी रूमानी सरोकरों से अलग पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रही है, इश्क और हुस्न के यश स्तूप गढ़ना अब इसे रास नहीं आ रहे हैं ।‘ अपनी गजल को समसामयिक प्रतिद्धताओं की प्रतिनिधि बताने हुए उन्होंने यह भी कहा है कि ‘‘स्त्री और पुरूष के बीच के स्वाभाविक आकर्षण एवं आत्मीय संस्कारों को सुसंस्कारित शालीनता समर्पण आस्था और विश्वास के अटूट रेशमी रिश्तों से बांधने एवं मजबूत करने के लिए अत्यंत उदास मैत्री मूलक ममतालू मनावृत्तियों को आज की गजल ने कदापि उपेक्षित नहीं किया है, अपितु उसे दैहिक बाजारों को सजाते भड़काउ मनोविकारों का निषेध करते हुए अनुशासन के आसन पर प्रतिष्ठित कर सौदर्यशक्ति के सारस्वत दिव्यार्चन के आस्थामूलक आयाम दिएस हैं ।‘‘ इतना ही नहीं वे यह मानते हैं कि आज की गजल शोषण, भ्रष्टाार, अन्याय, अनाचार का डटकर मुकाबला करने के लिए कटिबद्ध हैं । वे यह भी लिखते हैं कि ‘‘यह गजल हुस्न के मादक पैमाने छलकाने की बजाए व्यंग्य की बारूद भी बिछाने और अस्मिता की आग सुलगाने के लिए उदास, निरास और हताश मानवता के अन्तस की ऊर्जा को जगाने का काम अधिक कर रही है ।‘‘ गजल के मूलभूत चरित्र के बदलाव के संबंध में की गई ये तमाम बातें 80 के दशक में डाॅ देवराज और ऋषभदेव शर्मा द्वारा प्रस्तुत की गई तेवरी काव्यान्दोलन की आधिकारिक घोषणा की याद दिलाती है । अब आप गजल कहे या तेवरी, यह तो तय है कि आचार्य दुबे की इन रचनाओं का तेवर तापक्रम और मुद्रा परम्परागत गजल से भिन्न है । साथ ही इन गजलों की यह भी एक उपलब्धि है कि कवि ने इनमें हिन्दी के भाषिक संस्कार को सुरक्षित रखा है, मिथकों और पौराणिक प्रतीकों के साथ-साथ सहज उर्दू का प्रयोग करके काव्यभाषा को सामाजिकता प्रदान की है । आचार्य भगवत दुबे की गजल के मौलिक तेवर को समझने के लिए उनकी यह रचना देखी जा सकती है-
 गाॅंव में यूॅं शहर शहर के उजाले गये, लोक लज्जा के मूंह, होते काले गये
 चीर, जिनने किए अस्मिता के हरण, उनके स्वागत में, साफे-दुशाले गये
 चाटुकारी की पुस्तक पुरस्कृत हुई, पृष्ठ कुर्बानियों के निकाले गये,
 तोंद भरने तिजोरी की, गोदाम की, भूखे बच्चों के छीने निवाले गये
 प्रश्न होते रहे, दफन फाइल में सब, सिर्फ नरों मे उत्तर उछाले गये
 मंदिरों-मस्जिदों मेंअमन के लिये, फिर दुआ करने को बरछी-भले गये ।
गीत, गजल और तेवरी के सिद्धहस्त रचनाकार आचार्य भगवत दुबे ने वर्षों अथक परिश्रम करके दधीचि (महाकाव्य की रचना की है, जिसे छायावादोत्तर हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि कहा जा सकता है । आधुनिक काल में कविता ने जब अपनी लीक बदली तो नए-नए ऐसे मोड़ आते गय कि यह समझा जाने लगा कि प्रबंधकाव्य की परिपुष्ट धारा अचानक कुठित हो गई है । असल में अनेक दशकों तक किसी महाकाव्य के हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा में अपनी पहचान न बना पाने का कारण यह नहीं है कि प्रबंधात्मकता का युग चला गया अथवा कविता को कथा ने अपदस्थ कर दिया बल्कि इसका कारण यह है कि ऐसे कथावृत्त का अभाव रहा जो अपनी प्रासंगिकता में काल का अतिक्रमण करने में सक्षम हो। जिन रचनाकारों को ऐसे कथावृत्तों का महाकाव्यात्मक ट्रीटमेंट किया, ऐसे कथाकार भी उपन्यास के रूप में महाकाव्य दे सकंे । ऐसी, रचना-स्थितियों के बीच आचार्य भगवत दुबे ने सर्गों और छंदों मेंबंधा हुआ महाकाव्य रचना, जिसमें दधीचि के कंकाल से बज्र बनाए जाने और वृत्रासुर का वध किए जाने की गाथा को काव्यरूप प्रदान किया गया है । आतंकवाद के नग्न नृत्य से प्रकम्पित पृथ्वी की रक्षा के लिए परमाणु बमों का निर्माण इस गाथा की आधुनिक प्रसांगिकता है । पूरा काव्य नौ सर्गों में नियोजित है, जिनके शीर्षक है-दधीचि, सूरक्षा, गुरू, वृत्रासुर, मंत्रणा, सुषमा, आश्रम, बलिदान और युद्ध । दधीचि, महाकाव्य की भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण और इतिवृत्तात्मक है जो कहीं-कहीं मैथिलीशरण गुप्त की सहज काव्यभाषा की याद दिलाती है । छन्दों के वैविध्य में भी कव ने कमालकर दिखाया है । आवश्यकतानुसार संस्कृतवृत्तों का प्रयोग वे अयोध्या सिंह उपाध्याय की तरह करते हैं। ओज-गुण की दृष्टि से ‘दधीचि‘महाकाव्य पढ़ते समय श्यामनारायण पाण्डेय की याद ताजा हो जाती है। युद्ध सर्ग में मध्यप्रदेश के लोक-काव्यों की शैली का प्रीााव अन्तर्धारा के रूप में विद्यमान । देवताओं पर दानवों के आक्रमण का एक चित्र इस प्रकार है-
देवों के दल पर टूट पड़े, उन्मत्त कु्रद्ध दानव काले, मनुजों को लगता था मानों पड़ गए काल के अब पाले
ललकार रहे दानव नायक मारो-मारो मर्दन कर दो, ये शत्रु न जिंदा बच पाए, अभिमान चूर इनका कर दो
मन गया युद्ध फिर घमासान, तलवार चमकती थी चमचम, भाले घुस जाते छाती में, आते निकाल लाती बल्लम
तेगा लहरा कर वार करेंख् सन-सन चलते विष बुझे से बाण, मुगदर के मुंह फटे गज के, खच घुस जाती थी कृपाण
ऐसे आतंकवादी वृत्रासुर पर जब परमाणु बम सरीखा दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र छोड़ा गया तो-
शत सूर्यों सम ज्वाला निकली, जब काल कराल कुलिश छूटा, लपटों से झुलसा, भूमण्डल, ज्यों ज्वालामुख पर्वत फूटा
थी धरा धधकती धू-धूकर,  जब लोहित-सी हरियाली थी, ज्यों अट्टहास कर टूट पड़ी रणचंडी खप्परवाली थी
कवि के प्रहार से गूंज मार, आतंकवाद का अंत हुआ, जयकार पुरदन की करके,  हर्षिद फिर दिशा दिगंत हुआ
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि आचार्य भगवत दुबे ने सरस्वती की साधना केवल और केवल लोकमंगल के लिए की है । मानवाधिकार की चिंता करने वाले आचार्य भगवत दुबे ने अपनी सभी रचनाओं में जनसाधारण की पीड़ा, उसकी सौंदर्य, मानव-करूणा, विश्व-पे्रम और लोक संस्कृति के मूल्यों को स्थापित किया है । शोषण और दमन चाहे प्रकृति और प्र्यावरण का हो, चाहे वनवासियों और स्त्रियों का हो, चाहे विश्वशांति और सद्भाव का हो-कवि आचार्य भगवत दुबे की चिंता का मूल विषय वहीं है और कवि केवल इस चिंता के बखान तक ही अपने को सीमित नहीं रखता है बल्कि व्यावहारिक समाधान सुझाता है, ताकि विश्व बंधुत्व की स्थापना हो, मनुष्य और प्रकृति सहचर बनें, अशिव की क्षति हो और सत्य, शिव, सुन्दर की स्थापना हो सके तथा विश्व कल्याण हेतु आत्मबलिदान की भावना का विकास हो सके । यदि यह सब हो सके तो निश्चय ही यह धरती और खूबसूरत बनेगी, और रहने लायक बनेगी तथा नयी पीढ़ी को सचमुच एक सुरक्षित भविष्य मिल सकेगा ।
मचलते, रूठते, नटखट हमें ठन गन बताने हैं, हम इनके नाज-नखरों को सदा हॅंसकर उठाते हैं
कहीं से लौटकर आते हैं जब चिंतित थके-हारे, उठाकर गोद में बच्चों को सब गम भूल जाते हैं
खुदा का नूर, जन्नत के नजारे भी दिखें इनमें पंखेरू गंध के, घर में हमारे चहचहाते हैं ।
कविता वाचक्नवी,
द्वारा-उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सीाा, खैरताबाद, हैदराबाद-500004
कृति-  दधीचि (महाकाव्य)
प्रणेता-  आचार्य भगवत दुबे, जबलपुर
प्रकाशक- समय प्रकाशन, पटपड़गंज दिल्ली
मूल्य-  चार सौ रूपये

COMMENTS ON BOOKS PUBLISHED

दधीचि (महाकाव्य)
समीक्षा                   चन्द्रपाल शर्मा, ‘शीलेश‘
 समय प्रकाशन दिल्ली से 1998 में प्रकाशित आचार्य भगवत दुबे का महाकाव्य दधीचि‘ आधुनिक मशीनी वातातरण में प्रबंध काव्य की आवश्यकता, उपयोगिता और गरिमा की पूति करता है । गीत और गजल के व्यक्तिगत अनुभूति के परिचायक सृजन के युग में यह कृति काव्यकी व्यापकता को प्रमाणित करते हुए अपनी प्रबन्धात्मकता में भी वर्तमान सामाजिक चेतना के आधारभूत बिन्दुओं का स्पर्श करती है तथा कथ्य की प्राचीनता, पौराणिकता एवं मिथकीयता को जीवित रखते हुए उनमें आधुनिक युगबोध के चित्र रूपायिता करती है । अखंड भारत की व्यापक अवधारणा को इंगित करती हुई अनुभूतियों, प्रकृति की रमणीयता, राज्य की सम्पन्नता, मानवीय संवेदना, राजसत्तापरक चेतना, लोकतांत्रिक विमर्श, गुरू गरिमा, नाद सौन्दर्य, कर्तव्यबोध, वर्तमान सन्दर्भों के बिम्बों, नारी सम्मान, आध्यामिकता, पवुरूषार्थ, दिव्यता, युद्धचित्रों, प्रभावी और सरस अभिव्यक्तियों, तथा काव्य-सौन्दर्य के विविध तत्वों का चित्रण इस कृति में शिल्प के विविध उपादानपों से जीवन्त हुआ है । सम्पूर्ण कृति में प्रकृति अपने विविध रूपों में व्याप्त है । मानवीकरण की एक पंक्ति देखें-
 बल्लरियों को सींच हृदय से
 तरूवर गले मिले थे ।
 दधीचि में जहां एक ओर अभिव्यक्ति के आधुनिक उपादानों का प्रयोग हुआ है वहीं दूसरी ओर रीतिकालीन तत्वों का भी प्रयोग मिलता है । नखशिख वर्णन की दो पंक्तियों को देखें-
 पीन पयोधर छीनकटि नाभि भंवर गंभीर ।
 उरू नितम्ब वाही निरख, सुर मुनि हुए अधीर ।
 इस कृति में जीवन मूल्यों और भारतीय संस्कृति को जीवन्त रूप में प्रक्षेपित किया गया है । पश्चिमी संस्कृति और उसकी प्रभाव से कृति को बचाते हुए आचार्य भगवत दुबे ने अत्यंत शालीन और शेम्य मानव व्यवहार के सन्दर्भ प्रस्तुत किये हैं ं। प्रणय इच्छा जागृत हो जाने पर भी प्रातथेयी दधीचि से कहती है-
 स्वर्ग जिसके द्वार पर आकर खड़ा, कौन है संसार मेंउससे बड़ा
 किन्तु संयम, शील है वनवास में, ले पिताश्री को प्रथम विश्वास में ।

पिता की अनुमति से विवाह करना भारतीय परंपरा का द्योतक है ।
 इस महाकाव्य में वर्तमान युग की समस्याओं को स्थान-स्थान पर उभारा गया है । देखें-
 सत्ताधीशों पर जब सत्तामद छा जाता, तब विनाश क्या भला किसी से टाला जाता ।
कवि ने प्रजातंत्र के अंकुर भी प्राचीन कथा धरातल में प्रस्फुटित किये हैं । यथा-
 भले हो शासक विज्ञ, समर्थ तदपि संसद स्वीकृति अनिवार्य
 जरूरी जनमत का विश्वास सदन से हर निर्णय स्वीकार्य ।
आज पीडि़तों और महिलाओं के संरक्षण एवं उत्थान के जो वैचारिक आन्दोलन चल रहे हैं उनकी आत्मा दधीचि महाकाव्य में व्याप्त प्रतीत होती है । पीडि़त नारी के प्रति दधीचि का कर्तव्य बोध उच्चतम शिखर पर स्थापित है । यथा-
 कोई नहीं समर्थ दिखा जो जाकर उसे बचाता ।
 अबला की रक्षार्थ भला कैसे में स्वयं न जाता ।
 यदि सतीत्व लुट जाने देता जाकर नहीं बचाता ।
 तब बोलो इस वसुंधरा पर मुंह किसको दिखलाता ।



भाषा की रमणीयता, सादगी और गतिशीलता ने अभिव्यक्ति में सुखद आयचाम जोडे़ं हैं तथा ध्वन्यात्मकता एवं िचत्रोपमता जैसे तत्वों को जीवन्त किया है । एक युद्धचित्र दृष्टव्य है-
 मल्लयुद्ध रत महामत्त भट वृत्र, पवुरन्दर
 घूम-घूमकर धूम-धमाधम करें धुरन्दर ।।
 म्ुष्ठि प्रहार, पछाड़, दहाडें़ फिर ललकारें
 क्रें भयानक युद्ध उभयभट दांव न हारे ।।
 इसी प्रकार ध्सनात्मकता और नाद सौन्दर्य भी काव्य सौन्दर्य में वृद्धि करता है । दृष्टव्य है-
 धराधाम को धो-धो
 पवन करती दुग्ध धवलता ।
 महाकाव्य के शीस्त्रीय अभिलक्षणों का अनुसरण करते हुए आचार्य भगवत दुबे ने ‘दधीचि‘ कृति को महाकाव्य के धरातल पर खड़ा किया है जिसमें मंगलाचरण, ऋतु वर्णन, धीरोदात्त-दानशील नायक, सर्ग के कथ्य की प्रथम छन्द में विज्ञप्ति, जीवन मूल्यों और जनकल्याण का लक्ष्य, आध्यात्मिकता आदि तत्व कथानक की बुनावट में स्वाभाविक रूप् में जीवन्त हुए हैं तथ सत्य, शिव एवं सौन्दर्य का प्रतिपादन क1ृति का पावन श्रंगार करता है । छन्दों की विविधता और परिव0तक्वता कृतिकार की छान्दसिक क्षमताओं की गहराई का उदघाटन करती है । कुंडलियाॅं, मनहरण, दोहे, यहां तक कि प्रयाण गीत की लय को भी कवि ने नहीं छोड़ा है यथा-
 रसाल गात आरूणी, सुमन्द गंध वारूणी
 दिशा-दिगंत रजनी, मनोज-मान भजनी
 यह कृति साहित्य के विविध आन्दोलनों में दबी प्रबंधात्मकता की आत्मा को एक पुष्ट शरीर प्रदान कर उसे काव्य जगत में अवतरित करती है । शिल्प सौन्दर्य के आकर्षक आयामों, युगबोध, लोकनांत्रिक अवधारणाओं, जीवन मूल्यों, सात्विक चिंतन, पुरूषार्थ त्रिवर्ग । धर्म अर्थ और काम का इन्दधनुषी रूपायन करती हुई यह कृति हिन्दी साहित्य जगत में महाकाव्य के द्वार पुनः खोलने की भूमिका निभा सकती है ।
 अभिव्यक्ति में कुछ क्षम्य त्रुटियां हैं जैसे ‘आप‘ और ‘तुम्हें‘ का एक ही संदर्भ में प्रयोग यथा
 आप आमंत्रण अगर स्वीकार लें, हम तुम्हें सभार अंगीकार लें ।
 यहां आप और तुम्हें में व्यावहारिक विसंगति है परंतु स्वीकार लें और ‘‘अंगीकार लें‘‘ में स्वीकार
तथा ‘‘अंगीकार‘ शब्दों का कियाकरण कर देना हिन्दी की कोशीय पूंजी की वृद्धि में सहायक है।  उत्तम मुद्रण और आकर्षक जिल्द में 404 पृष्ठ की 400 रू. मूल्य की यह कृति हिन्दी काव्यजगत की स्थायी निधि सिद्ध होगी ऐसा विश्वास किया जा सकता है ।

BOOKS PUBLISHED

BOOKS PUBLISHED



परिचय

नाम   - आचार्य भगवत दुबे
पिता  - स्व. ओंकार प्रसाद जी दुबे
माता-  - श्रीमती रामकली दुबे
पत्नी  - स्व.श्रीमती विमला दुबे (आदर्श शिक्षिका)
जन्म  - 18.08.43
जन्म स्थान - डगडगा हिनौता चरगवां रोड, जबलपुर (म.प्र.)
शिक्षा  - एम.ए. एल.एल.बी. कोविद (संस्कृत)
व्यावसायिक विवरण-
(1) कृषि
(2) रत्नावली महिला महाविद्यालय गढा, जबलपुर में पाच वर्ष तक आचार्य पद पर कार्य किया ।
(3) मेडिको सोशल वर्कर, मेडीकल कालेज जबलपुर से सेवा निवृत्त  ।
संपर्क -   ‘विमल स्मृति‘ 1498 - पिसनहारी मढि़या के पास,
     गढ़ा जिला-जबलपुर (482003) म.प्र.
दूरभाष -   0761-2670165 -
मोबा. नं.    09300613975
प्रकाशित कृतियां:

(1)  स्मृतिगंधा  वियोग श्रंगार प्रधान गीत संग्रह 1990 प्रकाशक हिन्दी मंच भारती, जबलपुर.
(2)  अक्षर मंत्र  साक्षरता से संबंधित गीत संग्रह 1996 जिला साक्षरता साहित्य समिति, जबलपुर.
(3)  शब्दों के संवाद  एक हजार दोहों का संग्रह  1996 मेघ प्रकाशन दिल्ली.
(4)  हरीतिमा  पर्यावरण विषयक दोहा संग्रह 1996 विकास एवं पर्यावरण संस्था.
(5)  रक्षा कवच  विभिन्न रोगों के लक्षण, कारण, दुष्परिणाम एवं निदान विषयक गीत संग्रह(स्वास्थ्य शिक्षा हेतु) 1997 पलाश प्रकाशन.
(6)  संकल्परथी  वनवासियों की जीवन पद्धति, संस्कृति और पंचायती राज की परिकल्पना पर केन्द्रित काव्य कृति 1997 एन आई डब्ल्यू, सी वाई डी, जबलपुर.
(7)  बजे नगाडे काल के  जबलपुर की भूकम्प त्रासदी पर केन्द्रित दोहा संग्रह 1997 महापौर जबलपुर.
(8)  वनपांखी (गीत)   जल, जंगल, जमीन, विस्थापन एवं लोक संस्कृति पर केन्द्रित गीत संग्रह 1998 आदिवासी स्वशासन के लिए राष्ट्रीय मोर्चा.
(9)  दधीचि (महाकाव्य)   विश्वशांति के लिए समकालीन प्रासंगिकता के परिपे्रक्ष्य में महर्षि दधीचि के आत्मोत्सर्ग पर केन्द्रित बीसवीं सदी के उत्तरार्ध का सर्वाधिक चर्चित महाकाव्य 1998 समय प्रकाशन दिल्ली.
(10) जियो और जीने दो (गीत)       मानवाधिकारों पर केन्द्रित काव्य कृति 1990 मानव अधिकार कानून नेटवर्क की ओर से
(11) विषकन्या (मद्यनिषेध)  मद्य निषेध विषयक गीत-लोकगीत संग्रह 1999 एन आई डब्ल्यू, सी वाई डी, जबलपुर.
(12) शंखनाद (राष्ट्रीय गीत)    राष्ट्रीय पृष्ठभूमि पर केन्द्रित ओज गीत संग्रह 1999 समय प्रकाशन दिल्ली
(13) चुभन (गजलें)   गजल संग्रह 2000 प्रकाशन मंचदीप जबलपुर
(14) दूल्हा देव  कहानी संग्रह (अधिकांश आंचलिक कहानियां) 2000 समय प्रकाशन दिल्ली
(15) शब्द विहंग (दोहे)   एक हजार दोहों का संग्रह 2001 पाथेय प्रकाशन जबलपुर
(16) प्रणय ऋचाएं (गीत)  श्रंगार गीत संग्रह 2000 पाथेय प्रकाशन जबलपुर
(17) कांटे हुए किरीट (काव्य)  व्यंग्य गीत संग्रह 2001 कांटे हुए किरीट म.प्र.आंचलिक साहित्यकार परिषद.
(18) करूणा यज्ञ पशु-पक्षी, जीव-जन्तु पर्यावरण एवं गोरक्षा पर केन्द्रित काव्यकृति 2001 श्री कृष्ण गोपाला जीव रक्षा केन्द्र दुर्ग, छत्तीसगढ.
(19) हिन्दी तुझे प्रणाम  हिन्दी भाषा की दशा-दिशा एवं संवर्धन की पृष्ठभूमि पर केन्द्रित काव्य संग्रह 2003 अनुभव प्रकाशन गाजियाबाद.
(20) कसक (गजलें)  गजल संग्रह 2003 अनुभव प्रकाशन गाजियाबाद.
(21) शिकन (गजलें)   गजल संग्रह 2004 अनुभव प्रकाशन गाजियाबाद.
(22) हिरण सु्रगंधों के (नवगीत)   नवगीत संग्रह
(23) घुटन  गजल संग्रह  
(24) हम जंगल के अमलतास नवगीत संग्रह
(25) अक्कड बक्कड  बाल गीत
(26) मां ममता की मूर्ति          गीत संग्रह
(27) संाई की लीला अपार       गीत संग्रह
(28) अटकन चटकन  बाल गीत
संपादन -
(1)  मधुसंचय    जबलपुर के कवियों की रचनाओं का संकलन
(2)  मानस मंदाकिनी  गोस्वामी तुलसीदास के कृतित्व पर केन्द्रित स्मारिका
(3)  गौरवान्विता   कादम्बिनी क्लब जबलपुर की स्मारिका
(4)  यशस्विनी कादम्बरी के साहित्यकार/पत्रकार सम्मान समारोह की स्मारिका
(5)  धरोहर    काव्य संकलन
(6)  विरासत   काव्य संकलन
(7)  अमानत   काव्य संकलन
(8)  सौगात    काव्य संकलन
(9)  दीपशिखा    त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका

विशेष
शताधिक पुस्तकों की समीक्षा तथा अनेक पुस्तकों की भूमिका लेखन ।
प्रकाशनाधीन -
(1)  यादों के लाक्षागृह  नवगीत संग्रह
(2)  चहकते चितचोर  बालगीत संग्रह
(3)  गीत ये पीरी पही के  जनगीत संग्रह
(4)  गरजते शिला खण्ड  व्यंग्य संग्रह
(5)  मृग तृष्णा   लघुकथा संग्रह
(6)  संशय के संग्राम  खण्ड काव्य
(7)  गागर में सागर  हाकु काव्य
(8)  भक्ति की भागीरथी   भक्ति गीत संग्रह
(9)  सृजन सोपान  गद्य आलेख
(10) संस्कृतियों के सेतु   चिन्तन आलेख संग्रह
(11) अटकन चटकन  बाल गीत संग्रह
(12)  अक्कड़ बक्कड़  बाल गीत संग्रह
  इसके अतिरिक्त पाॅंच हजार दोहे अभी भी अप्रकाशित हैं ।
कैसिट्स -
(1)  ह्यूमन वेलफेयर एण्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन इन्दौर द्वारा रक्षा कवच के गीतों का कैसिट ।
(2)  श्री अजय पाण्डेय राष्ट्रीय अध्यक्ष मानवाधिकार समिति द्वारा बनवाया गया राष्ट्रीय रचनाओं का कैसिट ‘दुर्गावती‘    श्रीमती सोनिया गांधी अ.भा.राष्ट्रीय कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा लोकार्पित ।
(3)  लगभग एक दर्जन लोक गायकों के कैसिटों में लोकगीत सम्मिलित ।
(4)  श्री आशोक गीते खण्डवा द्वारा व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित पुस्तक ‘अभिव्यक्ति‘ का प्रकाशन ।
(5)  परिक्रमा संस्था जबलपुर द्वारा सन् 2003 के लिए कराये गये एक गुप्त सर्वेक्षण में जबलपुर के दस चर्चित व्यक्तित्वों में सम्मानित।
(6)  क्राइस्ट चर्च व्यापस सीनियर सेकेन्डरी स्कूल के तीन छात्रों द्वारा लघु शोध पत्र ।
(7)  कुसुम महाविद्यालय सिवनी मालवा एम.ए. अंतिम वर्ष की छात्रा द्वारा व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर शोध कार्य संपन्न
(8)  पी.एच.डी. के अनेक शोध प्रबन्धों में संदर्भ ।
(9)  कुरूक्षेत्र विश्व विद्यालय से दोहों पर एम.फिल. (हिसार से राजकुमार द्वारा)
(10) कामराज युनिवर्सिटि से नवगीत पर एम.फिल. प्रारंभ (छात्रा निर्मला मलिक द्वारा, निदेशक ्रडाॅ. राधेश्याम शुक्ल)
(11) डाॅ. ओंकार नाथ द्विवेदी के निर्देशन में, प्रियंका श्रीवास्तव द्वारा सुल्तानपुर से महाकाव्य दधीचि पर पी..एच.डी. प्रारंभ 
सम्मान - अलंकरण 
 
(1)  कहानी ‘दूल्हादेव‘ के लिये म.प्र.आंचलिक साहित्यकार परिषद की ओर से स्व. श्री रामेश्वर शुक्ला अंचल की अध्यक्ष्ता में मुख्य  अतिथि कादम्बिनी के पूर्व संपादक श्री राजेन्द्र अवस्थी द्वारा स्व. नर्मदा प्रसाद खरे स्मृति सम्मान 1000 रू. नगद ।
(2)  दोहा संग्रह ‘शब्दों के संवाद‘  पर अखिल भरतीय संस्था अभियान द्वारा ‘भाषा भूषण‘ अलंकरण एक हजार रूपये के पुरस्कार ।
(3)  दधीचि महाकाव्य पर स्व. रामानुजलाल श्रीवास्तव ‘ऊंट‘ बिलहरवी की स्मृति में ‘महाकवि निराला सम्मान‘ मुख्य अतिथि डाॅ. राममूति त्रिपाठी द्वारा ।
(4) दधीचि महाकाव्य पर ‘गुजरात हिन्दी विद्यापीठ‘ की ओर से मुख्य अतिथि महामहिम राज्यपाल श्री सुन्दर सिंह भण्डारी द्वारा ‘हिन्दी गरिमा सम्मान‘ (ताम्रपत्र)
(5) 1999 की सर्वश्रेष्ठ पद्यकृति ‘दधीचि‘ के लिए अ.भा. अभियान संस्था जबलपुर द्वारा ‘दिव्य‘ अलंकरण ‘हिन्दी रत्न‘ एवं पाॅंच हजार रूपये ।
(6)  ‘मंचदीप‘ जबलपुर की ओर से ‘दधीचि‘ महाकाव्य पर पद्म श्री गोपाल दास नीरज सम्मान 11000 रूपये एवं भव्य अलंकरण स्वयं नीरज जी के कर कमलों से ।
(7) अखिल भारतीय साहित्यकार कल्याण मंच रायबरेली द्वारा कहानी संग्रह ‘दूल्हा देव‘ पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान मुख्य अतिथि डाॅ. गिरिजाशंकर त्रिवेदी संपादक नवनीत (मुम्बई) द्वारा ।
(8) डाॅ. अम्बेडकर राष्ट्रीय अस्मिता दर्शी साहित्य अकादमी उज्जैन (म.प्र.) द्वारा दधीचि महाकाव्य पर ‘डाॅ.अम्बेडकर सम्मान‘ अध्यक्ष डाॅ. पुरूषोत्तम सत्यप्रेमी एवं मुख्य अतिथि डाॅ. शिवमंगल सिंह सुमन द्वारा ।
(9) म.प्र.आंचलिक साहित्यकार परिषद के सप्तम अधिवेशन हर्रई जागीर में दधीचि महाकाव्य पर श्रीमती राधा सिंह संस्कृति सम्मान 1100 रू. मुख्य अतिथि डाॅ. बालेन्दु शेखर तिवारी द्वारा ।    
(10) अ.भा. साहित्य कला मंच मुरादाबाद द्वारा समग्र लेखन पर स्व. सतीश चन्द्र अग्रवाल स्मृति सम्मान साहित्य श्री 2100 रू. डाॅ. विश्वनाथ शुक्ल द्वारा ।
(11) अ.भा. सृष्टि समाकलन समिति जालौन (उ.प्र.)द्वारा महाकाव्य दधीचि पर ‘काव्य किरीट‘ सम्मान ।
(12) शिव संकल्प साहित्य परिषद नर्मदा पुरम (म.प्र.) द्वारा महाकाव्य दधीचि पर ‘पं. राधेलाल शर्मा हिामंशु‘ सम्मान ।
(13) 4 मई, 2003 को साहित्य, संस्कृति कला संगम अकादमी परियावा प्रताप गढ द्वारा समग्र लेखन पर ‘विद्यावाचस्पति‘ मानदोपाधि ।
(14) हिन्दी प्रचारिणी समिति छिन्दवाडा द्वारा सारस्वत सम्मान ।
(15) साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था छिन्दवाडा द्वारा महाकाव्य दधीचि के लिए सम्मानित ।
(16) यू.एस.एम. पत्रिका तथा युवा साहित्य मंडल गाजियाबाद के वार्षिकोत्सव पर त्रिपुरा के पूर्व राज्यपाल डाॅ माता प्रसाद एवं उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल बी सत्यनारायण रेड्डी द्वारा वरिष्ठ साहित्य सेवी सम्मान ।
(17) श्री ऋषिकेश सेवाश्रम (धर्माधिष्ठान) अलीगढ द्वारा धर्मनिष्ठ सम्मानोपाधि ।
(18) आपदा प्रबंधन संस्थान भोपाल एवं संवाद सोसायटी फार एडवोकेसी एण्ड डेवलपमेंट जबलपुर द्वारा भूकम्प त्रासदी पर लिखित काव्यकृति ‘बजे नगाडे काल के‘ पर प्रशस्ति पत्र ।
(19) 1999 में ध्रुव प्रकाशन अहमदाबाद द्वारा श्रेष्ठ सृजन हेतु सारस्वत सम्मान ।
(20) म.प्र.लेखक संघ बैतूल (म.प्र.) द्वारा 16.4.2001 को ‘काव्याचार्य‘ सम्मानोपाधि ।
(21) नव सप्तक साहित्य श्रंखला के अंतर्गत प्रथम काव्यसप्तक के लिए चयनित एवं उसमें प्रकाशन के लिए उद्योग नगर गाजियाबाद द्वारा गौरवशाली रचनाकार के रूप् में सम्मानित ।
(22) माण्डवी प्रकाशन गाजियाबाद द्वारा काव्यकृति ‘कांटे हुए किरीट‘ के लिए ‘निर्मला देवी साहित्य स्मृति‘ सम्मान ।
(23) अ.भा.कवि सम्मेलन संयोजन समिति हाथरस द्वारा ‘काव्य प्रसून‘ सम्मान ।
(24) इंडियन फिजिकल सोसायटी सेन्ट्रल जोन द्वारा मनोरोग एवं चिकित्सा शिक्षा विषयक काव्यकृति ‘रक्षा कवच‘ के लिए सम्मानित ।  
(25) सन् 2002 में ऋतंभरा साहित्यिक मंच कुम्हारी (छत्तीसगढ) द्वारा उत्कृष्ट काव्य धर्मिता के लिए सम्मानित ।
(26) कला साहित्य एवं उल्लेखनीय समाज सेवा के लिए साहित्यिक  संस्था खजुरी कला (भोपाल) द्वारा ‘दर्पण सृजन श्री‘ सम्मान ।
(27) अ.भा.साहित्यकार कल्याण मंच रायबरेली द्वारा वर्ष 2001 में दधीचि महाकाव्य पर ‘‘सूफी संत कवि जायसी सम्मान‘‘।
(28) साहित्यिक संास्कृतिक क्रीडा एवं समाज सेवी संस्था जबलपुर द्वारा साहित्य सृजन के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवा के लिए ‘हरिशंकर परसाई‘ सम्मान ।
(29) मानव सेवा संस्थान, भोपाल द्वारा 1998 में उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए ‘साहित्य श्री‘ सम्मान एवं 252 रू. नगद।
(30) अमेरिकन बायोगाफिकल संस्था द्वारा राशि भुगतान करने की शर्त का विरोध करने के बाद भी रिसर्च बोर्ड की मानद सदस्यता प्रदत्त ।
(31) अ.भा. साहित्य परिषद बालाघाट द्वारा प्रशस्ति पत्र प्रदत्त ।
(32) संस्कार भारती राष्ट्रीय संगोष्ठी मेरठ प्रान्त द्वारा ‘संस्कार भारती सम्मान 2001.
(33) महावीर सेवा संस्थान कादीपुर, प्रतापगढ द्वारा दोहा संग्रह शब्दों के संवाद के लिए हिन्दी दिवस 1999 को ‘‘साहित्य शिरोमणि‘‘ सम्मान ।
(34) 10 नवम्बर 2002 को भारती परिषद प्रयाग द्वारा उ.प्र. के विधान सभाध्यक्ष पं. केशरी नाथ त्रिपाठी के जन्मोत्सव पर श्रेष्ठ साहित्य सृजन के लिए सम्मानित ।
(35) संस्कार भारती शिक्षण संस्थान विक्रमपुर सुल्तानापुर द्वारा सुदीर्घ, उत्कृष्ठ सृजन साधना के लिए ‘बाबा पुरूषोत्तम दास स्मृति शहस्त्राब्दि प्रतिभा सम्मान 2001.
(36) श्री राज राजेश्वरी त्रिपुर सुन्दरी मंदिर पवई, अमरपुर की ओर से माननीय श्री विश्वनाथ दुबे नगर निगम जबलपुर एवं गृह मंत्री श्री रघुवंशी द्वारा ‘सप्तर्षि सम्मान‘.
(37) पाथेय प्रकाशन जबलपुर द्वारा पाथेय श्री अलंकरण ।
(38) 24 दिसम्बर, 2001 को म.प्र. लेखक संघ जबलपुर द्वारा पत्रकार ‘स्व. हीरालाल गुप्त स्मृति समारोह में सम्मानित ।
(39) उत्कृष्ट साहित्यिक पत्रकारिता के लिए दैनिक सी. टाइम्स जबलपुर की ओर से परम पूज्य शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द जी द्वारा प्रशस्ति पत्र ।
(40) विमल स्मृति संस्था एवं आदर्श महिला मण्डल सीहोर द्वारा 6 जून, 2001 को उत्कृष्ट एवं प्रचुर साहित्य सृजन के लिए सम्मानित ।
(41) कहानी सग्रह दूल्हादेव पर नर्मदा अभियान द्वारा श्रीनाथ द्वारा राजथान से ‘‘हिन्दी भूषण‘‘ सम्मान ।
(42) सरिता साहित्य परिषद सहिनवां सुलनपुर द्वारा ‘कीर्ति भारती‘ (सर्वोच्च) सम्मान ।
(43) साहित्य साधना परिषद मैनपुरी द्वारा समग्र लेखन पर 20.02.05 को ‘‘कौशलो देवी अग्रवाल सम्मान‘‘ ।
(44) अखिल भारतीय साहित्य संस्कृति कला संगम अकादमी परियावा (प्रतापगढ) द्वारा समग्र लेखन पर ‘विद्यावारिधि‘ मानद उपाधि 2005.
(45) जन पत्रकार संघ नई दिल्ली द्वारा अभिनन्दन 2005.
(46) खानकाह सूफी दीदार शाह चिश्ती संस्था द्वाराा मध्यप्रदेश काव्य रत्न सम्मान 2005.
(47) डाॅ. राम निवास ‘मानव‘ अभिनन्दन समिति हिसार (हरियाणा) द्वारा साहित्य शिरोमणि सम्मान.
(48) कांटे हुए किरीट पर ‘दुष्यंतसम्मान‘ खानकाह सूफी दीदार शाह चिश्ती हाजी मलंग शाह बाडी बी ओ बाडी पो. कल्याण 42130 ठाणे द्वारा 2.10.2005 को ।
(49) अखिल भारतीय साहित्य परिषद (कोटा इकाई) राजस्थान द्वारा डाॅ महेन्द्र सम्मान 2005.
(50) भारत भारती संस्थान गुना द्वारा स्वर्ण जयन्ती सृजनधर्मी सम्मान 2005.
(51) हिन्दी भाषा कुंभ दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा बैंगलोर द्वारा सम्मनित 2006.
(52) हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा मथुरा अधिवेश में ‘वाग्विदांवर‘ सम्मान 6 अगस्त 2006 को ।
(53) मध्यप्रदेश हिन्दी  लेखक संघ भोपाल द्वारा वर्ष 2006 का ‘अक्षर आदित्य‘ सम्मान 2100 रूपये ।
(54) म.प्र. तुलसी साहित्य अकादमी भोपाल द्वारा वर्ष 2005 के लिए ‘तुलसी सम्मान‘ 1100 रूपये ।
(55) डाॅ. चित्रा चतुर्वेदी द्वारा अपने पिता न्यायमूर्ति स्व. ब्रज किशोर चतुर्वेदी की स्मृति में स्थापित तुलसी सम्मान वर्ष 2006.
(56) हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा विधावागीश सम्मान 2006.
(57) हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा महादेवी वर्मा सम्मान 2007.
(58) कवि ‘‘रत्न‘‘ सम्मान भारती परिषद प्रयाग 2007.
(59) विद्यावारिधि (मानद) साहित्य प्रभा शिखर सम्मान 2007 देहरादून ।
(60) हिन्दी साहित्य सम्मेलन  कटक (उडीसा) 24 जून, 2007 ‘‘सारस्वत संस्तन‘‘ सम्मान ।
(61)  हिन्दी भाशा सम्मेलन पटियाला द्वारा 18 अपे्रल, 2010 को ‘‘साहित्य भूशण अलंकरण ।
(62)  14 सितंबर, 2010 को प्रतिभा सम्मेलन समारोह समिति गढा जबलपुर द्वारा गढा गौरव सम्मान ।
(63)  विक्रमशिला विश्वविद्यालय गांधीनगर ईशुपुर (भागलपुर) द्वारा ‘विद्यासागर‘ मानद उपाधि ।

आचार्य भगवत दुबे
प्रकाशन - बहुचर्चित दधीचि (महाकाव्य) एवं दूल्हादेव (कहानी संग्रह)
 सहित काव्य विधा की तेईस कृतियां प्रकाशित । देश की शताधिक पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन
संपादन - मधुसंचय, धरोहर,अमानत, विरासत, सौगात एवं उपलब्धि काव्य संग्रह तथा त्रैमासिक  दीपशिखा के साथ ही मानस मंदाकिनी एवं कादम्बरी (स्मारिका) का प्रतिवर्ष संपादन ।
विशेष  - तीन लघु शोध पत्र, दो एम फिल संपन्न एवं पी.एच.डी., संपन्नता की ओर ।
सम्मान - देश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मान एवं उपाधियां/ अलंकार ।
संपर्क  - 2672 पिसनहारी-मढिया के पास जबलपुर 482003 म.प्र.
दूरभाष - 0761-2670165, मोबा. 9300613975.

-ः0ः-